________________
१.]
[ चिविलास : । (५) या प्रकार करि इत्यादि अनंत महिमा वस्तु की है, सो कहाँ लौं कहै, ताते संत हैं, जे स्वरूप अनु भौ (भव) अमृत रस पीय अमर हो। . (६.) "सम्यक्तस्त्ररूप अनुभौ सकल निजधर्ममूल शिवमूल छ, यो भावै मूल सम्यक्त जिनधर्म कल्पतरुको छ ।"
(७) "ये जु हैं षट् द्रव्य तिनमें चेतन राजा है, तिन पांच में तो तुम मत अटकी, तुम्हारी महिमा बहुत ऊँची है।"
अन्त में ग्रन्थकार की निम्नोक्त भावना के साथ विराम लेता हूँ :
___ "इस ग्रन्थ में परमात्मा का वर्णन किया, पोछे परमात्मा पायवे का उपाय दिखाया। जो परमात्मा को अनुभव कियो चाहै हैं, ते या ग्रन्थ कौं बार-बार विचारौं । इस संस्करण के सम्बन्ध में
हमारे प्रकाशन विभाग की यह रीति-नीति है कि किसी भी पुस्तक का प्रकाशन तब ही कराया जाय, जबकि उसे कम से कम एक बार प्राद्योपान्त पढ़ लिया जाय । उसमें प्रकाशन की दृष्टि से यदि किसी प्रकार के सुधार की गुंजाइश प्रतीत हो तो उसमें प्रकाशन समिति से अनुमति लेकर सुधार किया जाता है और तब हो उसका प्रकाशन किया जाता है।
इस चिविलास के प्रकाशन की बात भी. जब पाई, तो मुझे आदरणीय श्री नेमीचन्दजो पाटनी ने इसे प्रकाशन की दृष्टि से पढ़ने के लिए कहा । मैंने इसे पढ़ा भी, लेकिन मुझे सन्तोष नहीं
-
-
-
1. इसी पुस्तक में पृष्ठ ११६ पर इसका अनुवादित प्रण देखें। 2. इसी पुस्तक में पृष्ठ १२१ पर इसका अनुवादित प्रपा देखें। 3. इसी पुस्तक में पृष्ठ १३१ पर इसका अनुवादित प्रश देखें। 4. इसी पुस्तक में गृष्ट १५६ पर इसका मनुवादित अंश देखें।