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इस संस्करण के सम्बन्ध में ]
[ ११ हुआ तो मैं और व० यशपालजी ने लगभग ५०-६० पृष्ठों को सायसाथ पढ़ा । हम दोनों ने यह अनुभव किया कि इसके अनुवाद को कुछ सुधारा जाय । इसीप्रकार सम्पादन की दृष्टि से भी इसमें कुछ परिवर्तन करने की अावश्यक्ता महसूस हुई । हमने क्या-क्या किया है, इसकी विशेष जानकारी तो पापको इस संस्करण एवं पूर्वप्रकाशित सस्करण के तुलनात्मक अध्ययन करने पर ही ज्ञात होगी, फिर भी हमने क्या-क्या किया है, उसकी संक्षिप्त जानकारी यहाँ दे रहे हैं :
पुस्तक की मूल प्रति में तो कहीं कोई पैराग्राफ प्रादि के द्वारा विभाजन नहीं है । यहां तक कि अध्यायों का विभाजन भी नहीं किया गया है । अतः समझने में सुगमता हो- इस दृष्टि से छोटेछोटे पैराग्राफ बनाये हैं।
पूर्व में इसका अनुवाद पण्डित श्री गोपीलालजी शास्त्री ने किया था, लेकिन जब इस अनवाद को मूल प्रति के प्राधार पर परिमार्जित किया गया तो इतना अधिक परिवर्तन हो गया कि मानो नया ही अनुवाद हो गया हो । अत: इसकी नयी प्रेसकॉपी तयार की गई; उस प्रेसकॉपी को भी मैंने पुनः पढ़ा, इसके आधार पर ही इस संस्करण को प्रकाशित किया गया है।
मध्यायों का विभाजन भी नये सिरे से किया है । जहाँ पूर्व सम्पादित कृति में ३० अध्यायों में विभाजन था, वहीं इस संस्करण में केवल सात अध्याय बनाये गये हैं।
___ ये अध्याय मुख्य-मुख्य प्रकरण की दृष्टि से बनाये गए हैं, जैसे द्रव्य, गण, पर्याय आदि । अन्य प्रकरणों को इनके अन्तर्गत होने से पृथक् अध्याय नहीं माना गया है। जैसे ज्ञानगुण, चारित्रगण प्रादि गुणों के भेद होने से उन्हें गुण नामक प्रकरण में ही रखा गया है इसीप्रकार शक्तियों के प्रकरण में भी प्रत्येक शक्ति के अलग-अलग अध्याय माने गये थे। जबकि उन्हें इस संस्करण में 'मात्मा की