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ग्रन्थ के सम्बन्ध में ]
निजानन्दरस की अनुपम छटा बह रही थी। यह सन्न होते हुए भी उनके हृदय में 'संसारी जीवों की विपरीत परिणति एवं विपरीत अभिनिवेश कैसे मिटें' - ऐसी करुणाबुद्धि थी, जैसा कि उनकी अन्य कृति 'भावदीपिका' पत्र २४१ के अन्त के निम्न वाक्य से स्पष्ट होता है :
'जिनसूत्र के अर्थ अन्यथा करने लगे, ताकरि भोले जीव तिनकी बताई प्रवृत्ति ताही विर्षे प्रवर्तते भये । नाहीं है सत्यसूत्र का ज्ञान जिनको, ताकरि महंत शास्त्रन का ज्ञान, तिनत अगोचर भया ताकरि मूढ़ता प्राप्त भये होनशक्ति भये, सत्यवक्ता सांचा जिनोक्तसूत्र के अर्थ ग्रहण कराबनेहारा कोई रहा नहीं, तातें सत्य जिनमत का तो प्रभाव भया, तब धर्म ते परान्मुख भये । तब कोईकोई गृहस्थ सुद्धि संस्कृत प्राकृत का वेत्ता भया, ताकरि जिनसूत्रन को अवगाहा, तब ऐसा प्रतिभासता भया जो सूत्र के अनुसार एक भी श्रद्धान-ज्ञान-पाचरणन की प्रवृत्ति न करें हैं पर बहुत काल गया मिथ्याश्रद्धान-ज्ञान-पाचरण की प्रवृत्तिकों, तारि अतिगाढ़ताने प्राप्त भई, तात मुखकरि कही माने नहीं तब जीवनका अकल्याण होता जानि करुणाबुद्धिकरि देशभाषाविर्षे शास्त्ररचना करी, तब केई सुबुद्धीन के साँचा बोध भया, बहुरि अब इस अवसर विष ज्ञान की वा शक्ति की ऐसी हीनता भई, जो भाषा शास्त्रन तें भी ज्ञान कर सकें नाहीं, तातै तिन महंत शास्त्रनितें प्रयोजनभूत वस्तु काढ़ि-काढ़ि छोटे प्रकरण करि एकत्र कीजिये है, ताते ऐसे अवसर विौं सम्यकज्ञान के कारण भाषाशास्त्र ही हैं।'
परन्तु फिर भी वह परपदार्थों के विपरीत परिणमन से कभी दिलगीर प्रभवा दुखी नहीं होते थे; किन्तु यह समझकर संतोष धारण कर लेते थे कि इनका परिणमन मेरे आधीन नहीं, ये अपने परिणमन के आप ही कर्ता-धर्ता हैं, अतएव मैं इनके परिणमन का