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[पिविलास
जैसे एक नगर है, उसमें बहुत से मोहल्ले हैं और प्रत्येक मोहल्ले में बहुत से घर हैं, अत: पृथक-पृथक् अङ्गों द्वारा नगर नहीं हो सकता, सबकी एकतारूप ही नगर है । जैसे एक मनुष्य के अनेक अंग होते हैं, एक अंगरूप मनुष्य नहीं होता, सब अंगरूप मनुष्य होता है।
उसीप्रकार केवल द्रव्यरूप या केवल गणरूप या केवल पर्यायरूप ही जीव नहीं है, जीवबस्तु तो द्रव्य-गुण-पर्याय का एकत्व है । यदि एक ही अंग में जीव होने लगे तो ज्ञानजीव, दर्शनजीव - इसप्रकार अनन्त गुणों में अनन्त जीव होने लगेंगे । अतः अनन्त गुणों की पुञ्जरूप जीववस्तु है ।
शंका :- जब यहाँ चेतनाभाव कों जीव का लक्षण कहा है, फिर चैतन्यशक्ति (चितिशक्ति) का कथन पृथक् क्यों किया गया है ??
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१. समयसार परिशिष्ट की ४७ शक्तियों में पहली जीवनशक्ति और दूसरी
चितिशक्ति है । जीवत्वशक्ति के स्वरूप में 'चंतन्यमानभाव का घारण करना जिसका लक्षण है' - ऐसा कहा है । अर्थात् चितिशक्ति का अन्तर्भाव जोवत्वशक्ति में ही हो जाता है, फिर भी चितिशक्ति का पृषक कथन किया गया है - इस सन्दर्भ में ही यहां शंकाकार की शंका है । पण्डित दीपचन्दजी ने भी इसका समाधान प्राचार्य अमृतचन्द्र के द्वारा लिखित उन शक्तियों के विवेचन के माध्यम से बड़े ही सुन्दर ढंग से दिया है।
- सम्पादक