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चिदविलास ]
तीनों कालों में जीव जिस परमात्मा का ध्यान करके मुक्त हुए हैं, उस परमात्मदशा का कारण-कार्य जिस जीव ने नहीं जाना तो उसने क्या जाना ? अर्थात् कुछ नहीं जाना, अतः कारण कार्य जानना ही चाहिए ।
कारण कार्य का स्वरूप क्या है, वह कहते हैं :"पुवपरिखामजुत कारणभाषेण घट्टदे दध्वं । उसरपरिणाम जुदं तं घिय फज्जं वयं हवेरिणयमा ॥"१
इस गाथा में यह बताया गया है कि 'पूर्वपरिणामयुक्त द्रव्य' कारण भावरूप परिणमित हुआ है और 'उत्तरपरिरणामयुक्त द्रव्य' कार्यभावरूप परिणमित हुआ है, क्योंकि उत्तर-परिणाम का कारण पूर्व-परिणाम है अर्थात पूर्वपरिणाम का व्यय उत्तर-परिणाम के उत्पाद का कारण है । जैसे मिट्टी के पिण्ड का व्यय घटरूप कार्य का कारण
शंका :- उत्तरपरिणाम के उत्पाद में क्या कार्य होता है ?
समाधान :- स्वरूपलाभ लक्षणसहित उत्पाद है, स्वभावप्रच्यवन लक्षएसहित व्यय है; अतः यह निःसंदेह जानो कि स्वरूपलाभरूप कार्य है। यह स्वरूपलामरूप कार्य प्रत्येक समय परमात्मा में हो रहा है, अतः सन्त
१ कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा २२२ एवं २३०