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स.नगुण ]
[२७ सिद्ध भगवान के भो सर्वप्रथम सम्यक्त्वगुण ही कहा है, अतः सम्यक्त्वगण प्रधान है। . उपधाम दर्शन और ज्ञानस्वरूप है । जहाँ सम्यग्दर्शन' कहा जाय, वहाँ सम्यक्त्व का ग्रहण करना और जहाँ सिर्फ 'दर्शन' ही कहा जाय, वहाँ देखनेरूप (सामान्य अवलोकनरूप) दर्शन ग्रहण करना । वस्तु का निश्चयरूप: अनुभवरूप सम्यक्त्व है, वही प्रधान है।
ज्ञानगरण जानपनेरूप ज्ञान निर्विकल्प है, वह स्वज्ञेय को जानता है । यदि ज्ञान परज्ञेय को निश्चय से जाने तो वह जड़ हो जाय अर्थात् 'पर' में तादात्म्यवृत्ति सम्बन्ध होकर एक हो जाय । अतः ज्ञान पर को निश्चय से तो नहीं जानता, उपचार से जानता है ।
शंका :- यदि ज्ञान 'पर' को उपचार से जानता है तो सर्वज्ञता कैसे सिद्ध होगी ? क्योंकि उपचारमात्र झूठ है, अतः सर्वज्ञता झूठी होकर कैसे सिद्ध हो सकेगी?
समाधान :- जैसे हम दर्पण में घट-पट देखते हैं । यहाँ जो देखना है, वह उपचार से देखना (दर्शन) नहीं है । ज्ञेय प्रत्यक्ष दिखते हैं, वे तो असत्य नहीं हैं; परन्तु
१. इस अध्याय के प्रारम्म में स्वय लेखक ने निर्विकल्प सम्यग्दर्शन और
सविकल्प सम्यग्दर्शन की चर्चा की है, जबकि वहाँ सम्यग्दर्शन से तात्पर्य सम्पमत्व से न होकर सामान्य-प्रवसोकन लक्षणवाले दर्शन से है।