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वन्य ]
हो सकता और यदि सुवर्ण न हो तो पीत, चिक्कण, भारी आदि स्वभाव भी नहीं हो सकते । अतः गुगा और पर्याय द्रव्य के प्राश्रय से रहते हैं।
तत्त्वार्थसूत्र में कहा है -
'द्र श्रिया निर्गुणा गुस्सा :' अर्थात् द्रव्य के आश्रय से गुरग रहते हैं, लेकिन गुगा के आश्रय से गुरुग नहीं रहते ।
इसका दृष्टान्त दिया जाता है :
जैसे एक गोलो बीस प्रौषधियों से बनाई गई है, वे बीसों औषधियाँ गोली के पाश्रय से रह रही हैं । बीसों औषधियों का एकरस गोली नाम से कहा जाता है । यद्यपि गोली में बीसों ही पौषधियां अलग-अलग स्वाद को धारण करती हैं। तथापि यदि गोली के भाव (स्वरूप) को देखा जावे तो ज्ञात होगा कि उस गोली से किसी औषधि का रस अलग नहीं है । उन बीसों में से प्रत्येक रस गोली के भाव (स्वभाव) में स्थित है, उन बीसों औषधियों के रसों का जो एक पुज्ज है, उसी का नाम गोली है ।
ऐसा कथन करने से यद्यपि भेदविकल्प-सा पाता है, परन्तु एक ही समय बीसों औषधियों के रसों का भाव (स्वभाव) ही एक गोली है। उसीप्रकार अलग-अलग प्रत्येक गगा अपने-अपने स्वभाव को लिए रहता है । किसी भी गुण का भाव किसी भी दूसरे गुग्ग के भाव से नहीं मिलता। जैसे ज्ञान का भाव दर्शन से नहीं मिलता