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सत्-उत्पाद और प्रसत्-उत्पाद ]
है, वस्तु की स्थिरता है, विश्राम है, पाचरण है, वेदकता है, सुख का पास्वाद है, उत्पाद-व्यय हैं और षड्गणी वृद्धि हानि है । बस्तु के गुणों का प्रकाश प्रगट परिणाम ही करता है। विवेकी जीव को गुण-गुणी का विलास-रस निर्विकल्पदशा में आया है ।
प्रत्येक वस्तु अनन्त गुण का पुञ्ज है, बस्तु में गुण रहते हैं; अतः जब परिणाम निजवस्तु का बेदन करता है, तब वस्तु के अनन्त गुणों का भी वेदन होता है। इस प्रकार वह गुण और गुणी दोनों का वेदन करता है ।
जीववस्तु कसी है ? ___ जीववस्तु की 'चेतनाभावपुञ्ज'- इतनो ही सिद्धि है। है है तथा यदि कोई अज्ञान, मिथ्यात्व, अविरति, शुभ, अशुभ. भोग,
राग, द्वेष, मोह आदि चिद्विकार वो ही जीववस्तुरूप प्रतीति है करेगा तो विकार से जीव वस्तु की सिद्ध नहीं है; वह तो चेतन है का कलंकभाव है।
जीव वस्तु की 'मूल चेतनामात्र -- इतनी ही सिद्धि है। तथा सम्यक्त्व होना, एकाग्रता होना, यथाख्यात होना, अन्तरात्मा होना,सिद्ध भाव होना, केवलज्ञान होना, केवलदर्शन होना इत्यादि भावों के होने को कोई जीववस्तु जानेगा तो अरे ! वे प्रगट होने के भाव तो सर्व चेतना की अवस्था है।
-पंडित श्री दोपचन्द शाह : आत्मावलोकन, पृष्ठ ६६