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शाता के विचार ]
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जैसे लकड़हारे ने चिन्तामरिण प्राप्त करके भो उसकी परख नही जानी, परन्तु इससे चिन्तामणि का प्रभाव नष्ट नहीं हो गया । वैसे ही प्रज्ञानवश स्वरूप की महिमा नहीं जानी, फिर भी इससे स्वरूप का प्रभाव नष्ट नहीं हुआ । ___ जैसे बादलों की घटा में सूर्य छिपा है, परन्तु वह छिपा होकर भी प्रकाश को धारण करता है, रात्रि की भांति अन्धकारयुक्त नहीं है । वैसे ही प्रात्मा कर्मरूपी घटा में छिपा है, फिर भी ज्ञान-दर्शनरूपी प्रकाश करता ही रहता है, वह नेत्रों तथा ज्ञन्द्रियों के द्वारा दर्शन प्रकाश करता है और मन द्वारा जानता है, अचेतन की भांति जड़ नहीं है ।
इसप्रकार स्वरूप परमगुप्त है, तथापि ज्ञाता उसे प्रगट (प्रत्यक्ष) देखता है । __ शंका :- जो बन्धन से मुक्त होना चाहता है, वह कैसे शुद्ध हो सकता है ?
समाधान :- जो अपनी चेतना की प्रकाशशक्ति उपयोग द्वारा प्रगट है, उसको प्रतीति में लाना चाहिये । जिस प्रकार पानी की तरंग पानी में गुडुप (अन्तर्मग्न) हो जाती हैं, उसीप्रकार यह जीव यदि दर्शन-ज्ञान परिणाम को गुडुप करे तो निज समुद्र को मिले और महिमा प्रगट करे ।
पर में परिणामों को लीन करता है, परन्तु पर वस्तु तो पर है; अतः छूट जाती है, तब खेद होता है, परिणाम