________________
१४२ }
[ चिदपिनाम
के विकल्प भेद नष्ट होकर परिणाम निज में वर्तते हैं। जिन-जिन इन्द्रियविषयक परिणामों ने इन्द्रियोपयोग नाम धारण किया था और संकल्प-विकल्परूप जिस मन ने उपयोग नाम पाया था, उन दोनों प्रकार के उपयोगों के छूटने पर बुद्धि द्वारा ज्ञानोपयोग उत्पन्न होता है । वह जानपना बुद्धि से पृथक है । ज्ञान, ज्ञानरूप परिणति द्वारा ज्ञान का वेदन करता है, प्रानन्द प्राप्त करता है और स्वरूप में लोन होकर तादात्म्यरूप हो जाता है । जहाँ-जहाँ परिणाम विचरण करते हैं, वहाँ-वहाँ श्रद्धा करके लीन होते हैं, अतः द्रव्य-गुण में परिणामों के विचरण करते समय जब जहाँ श्रद्धा हो, वहीं लीनता हो जावे, तब 'लयसमाधि' होती है ।
(२) प्रसंज्ञात समाधि :- सम्यक्त्व को जाने और उपयोग में ऐसे भाव की भावना करे कि चेतना का प्रकाश अनन्त है, परन्तु उस में दर्शन-ज्ञान-चारित्र मुख्य है । मेरी दृशिशक्ति निर्विकल्प उत्पन्न होती है । ज्ञानशक्ति विशेषरूप से (सविकल्परूप से) जानती है । चारित्र परिणामों के द्वारा वस्तु का अवलम्बन करके वेदन होता है तथा उसमें विश्राम द्वारा आचरण की स्थिरता होती है ।
स्वयं अपने स्वभावरूप कर्म को करके कर्ता होता है । तब स्वभाव कर्म होता है। निजपरिणति के द्वारा स्वयं स्वयं को साधता है, प्रतः स्वयं ही करण होता है, स्वयं की परिणति