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निरस्मिदानुगत समाधि ]
[ १५३ समाधि है । 'निरानन्द' - ऐसा शब्द, पर के आनन्द रहित - ऐसा अर्थ और उनको जाननेरूप ज्ञान, ये तीन भेद इसमें भी समझना चाहिये ।
(१०) निरस्मिदानुगत समाधि :- पहिले अहं 'ब्रह्म अस्मि' - ऐसा 'अस्मिभाव' था, परन्तु अब वह भाव भी दूर हुमा । विकार अत्यधिक रूप से मिटा । 'अस्मि' में अहंपने की मान्यता थी, वह भी मिटी। निजपद ही का विलास या खेल है, पर के कारण नहीं हुमा । परम साधक की परम साध्य से भेंट हुई और ऐसी हुई कि मन गल गया, स्वरूप में स्वसंवेदन द्वारा स्वयं प्रात्मा ने आत्मा को जाना
और परमात्मा को दशा समीप से समीपतर हुई । यह परम विवेक प्राप्त करने का सोपान है ।
मानरूप विकार गया, विमल चारित्र का खेल या विलास हुना। मन की मलता मिटी, स्वरूप में तदाकार होकर एकमेकरूप हुआ, जिससे ऐसा प्रानन्द प्राप्त हुआ कि वह केवलीगम्य ही है। जिस समाधि में सुख की कल्लोल उठती है, दुःखरूप उपाधि मिट चुकी है, आनन्दरूपी गृह को जा पहुंचा है, वहाँ अब तो केवल राज्य ही करना रहा है, समीप ही राज्य का कलशाभिषेक होगा, केवलज्ञानरूपी राजमुकुट किनारे रखा है, समय नजदीक है, सिर पर जल्दी ही केवलज्ञानरूपी मुकुट धारण किया