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तो दर्शन, ज्ञान इत्यादि विस्तार को धारण करते हैं; अतः इसकारणा भी 'विष्कम्भक्रम' कहते हैं ।
यहाँ प्रवाहक्रम द्रव्य के परिणाम में है, वह ( प्रवाह क्रम ) गुरण में नहीं; अतएव वह गुणपरिणति का प्रवाह नहीं है। गुण से तो विस्तारक्रम ही कहा गया है ।
द्रव्य की जो परिणति है, वह सब गुरण में हैं । आत्मा ज्ञानरूप परिणमन करता है और ज्ञान जाननेरूप परिणमन करता है - इसप्रकार लक्ष्य - लक्षण के भेद से परिणामभेद है । परन्तु यह तो नहीं माना जा सकता । किज्ञान की परिणति पृथक् है, और श्रात्मा की परिणति पृथक् है, क्योंकि ऐसा मानने से तो सत्त्व पृथक् हो जावेगा । सत्त्व के पृथक् हो जाने से वस्तु पृथक-पृथक् अनेक अवस्था धारण करके प्रवर्तन करने लगेंगो; जिससे विपर्यय होगा, वस्तु का अभाव हो जावेगा ।
शंका :- द्रव्य और गुरण की परिणति पृथक्-पृथक् मानने में क्या दोष हैं ? आत्मा और गुण की अभेदपरिणति है - ऐसा मानने पर यह कहना व्यर्थ होगा कि 'ज्ञान' जाननेरूप परिणमन करता है और 'दर्शन' देखनेरूप परिणमन करता है, क्योंकि प्रभेद में भेद उत्पन्न नहीं होता ?
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समाधान :- द्रव्य में परिणामों की वृत्ति उत्पन्न होती है । द्रव्य अनन्त गुणों का पुञ्ज है । अतः यह