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गुण ]
[ २३ (३) दोनों विवक्षामों से कथन करने पर सत्तागुण 'ज्ञानरूप भी है और नहीं भी है' !
(४) सत्तागरण की अनन्त महिमा वचन के अगोचर है, अतः 'प्रवक्तव्य' है।
(५) सत्तागुण को 'ज्ञानगणरूप है'- ऐसा कहने पर 'ज्ञानरूप नहीं है'- ऐसे निषध का अभाव होता है, अतः सत्ता 'ज्ञानरूप तो है, फिर भी अवक्तव्य है।
(६) सत्तागरण को 'ज्ञानरूप नहीं है'- ऐसा कहने से 'ज्ञानरूप है'- ऐसे विधि का प्रभाव होता है, प्रतः सत्तागमा 'ज्ञानरूप नहीं है, फिर भी प्रवक्तव्य है।
(७) सत्तागुरण 'ज्ञानगरण भी है और नहीं भी है',- ये दोनों विवक्षायें एक ही साथ नहीं कहीं जा सकतीं, अतः सत्तागरण 'ज्ञानरूप भी है, ज्ञानरूप नहीं भी है, फिर भी प्रवक्तव्य है।
इस प्रकार चैतन्य में सत्तागा और ज्ञानगरा के सात भङ्ग सिद्ध किये गये हैं। इसीप्रकार चैतन्य में सत्तागुण और दर्शन के भी सात भङ्ग सि करना चाहिए । इसीप्रकार वीर्य गुगा के साथ, प्रमेयत्वगग के साथ और ऐसे ही चेतना की अपेक्षा करके अनन्तगणों और सत्ता में सात-सात भङ्ग सिद्ध करने चाहिये । तब अनन्त सप्तभङ्गी सिद्ध हो जावेगी।
पश्चात् सत्तागण के स्थान पर 'वस्तुत्वगुण' को लिया