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विश्वतत्त्वप्रकाशः
और अनित्यता, भेद और अभेद, सामान्य और विशेष, द्वैत और अद्वैत, हेतुवाद और अहेतुवाद, दैववाद और पुरुषार्थवाद आदि युग्मों में किसी एक का आग्रह कर दूसरे का निषेध करना दोषपूर्ण होता है, आवश्यकता इस की है कि दोनों की मर्यादाएं समझ कर दोनों का उपयोग करें । यह मर्यादा समझाने का कार्य स्याद्वाद ही करता है । इस तरह सर्वज्ञसंस्थिति के आधार के रूप में आचार्य ने स्यादवादसंस्थिति का वर्णन किया है।
- इस ग्रन्थ पर अकलंक की अष्टशती तथा वसुन न्दि की वृत्ति ये दो टीकाएं प्राप्त हैं । अष्टशती पर विद्यानन्दि की अष्टसहस्री टीका है तथा अष्टसहस्री पर यशोविजय का विषमपदतात्पर्यविवरण एवं समन्तभद्र (द्वितीय) के टिप्पग हैं।
प्रकाशन-१ मूलमात्रा-सं. लालाराम शास्त्री, जैन ग्रन्थ रत्नाकर, १९०४, बम्बई; २ सनातन जैन ग्रन्थमाला का प्रथमगुच्छक, १९०५, काशी; ३ मूल, अष्टशती व वसुनंदिवृति-सं. गजाधरलाल, सनातन जैन ग्रन्थमाला, १९१४, काशी; ४ मूल, वसुनंदिवृत्ति व मराठी अनुवाद-पं. कल्लाप्पा निटवे, प्र. हिराचंद नेमचंद दोशी, शोलापूर; ५ मूल व पं. जयचंद्रकृत हिंदी टीका ( वसुनंदिवृत्तिपर आधारित )-अनन्तकीर्ति जैन ग्रन्थमाला, बम्बई; ६ मल व हिन्दी अनुवाद-पं. जुगलकिशोर मुख्तार, वीरसेवामन्दिर, दिल्ली. ]
__युक्त्यनुशासन-यह ६४ पद्यों का स्तोत्र है। महावीर का अनुशासन-उपदेश-युक्ति पर आधारित है-अनुमान आदि से बाधित नही होता अतः महावीर स्तुत्य हैं-यह इस स्तोत्र का प्रमुख विषय है। आप्तमीमांसा में जहां परस्परविरोधी प्रतीत होनेवाले साधारण वादों का (general theories) समन्वय प्रमुख है वहां युक्तयनुशासन में दार्शनिकों के विशिष्ट प्रश्नों का विचार है। ऐसे प्रश्नों में भूतोंसे चैतन्य की उत्पत्ति, बौद्धों का संवृत्ति ( व्यावहारिक ) सत्य, वैशेषिकों की समवाय सम्बन्ध
१) आप्तमीमांसा व गन्धहस्तिमहाभाष्य के सम्बन्ध में विवरण आगे देखिए ।