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सर्वज्ञसिद्धिः सर्वप्रमातृसंबन्धिप्रत्यक्षादिनिवारणात् । केवलागमगम्यत्वं लप्स्यते पुण्यपापयोः ॥
(तत्त्वसंग्रह का. ३१४२) इति स्वयमभिधानात् । अथ आगमप्रमया विषयीकृतत्वेन अदृष्टस्य प्रमेयत्वोपपत्तेरिति चेत्र । आगमस्यापि प्रत्यक्षपूर्वकत्वात् । तथा हि। विवादपदानि वाक्यानि स्ववाव्य साक्षात्कारिणा प्रयुक्तानि अनुमानाद्यनपेक्षप्रमाणवाक्यत्वात्, यदेवं तदेवं, यथा अहं सुखीत्यादि वाक्यम्, अनुमानाधनपेक्षप्रमाणवाक्यानि च तानि तस्मात् स्ववाच्यसाक्षात्कारिणा प्रयुक्तानीति। धर्माधर्मप्रतिपादकवाक्यानां धर्माधर्मसाक्षात्कारिणा प्रयुक्तत्वमङ्गीकर्तव्यम्। अथ धमाधर्मप्रतिपादकवाक्यानामपौरुषेयत्वात् कथं पुरुषप्रयुक्तत्वमङ्गीक्रियत इति चेन्न । तदपौरुषेयत्वस्याग्रे विस्तरेण निराकरिष्यमाणत्वात् । [१९. सर्वज्ञसाधकानुमाने दोषाणां निरासः।]
सर्वशो धर्मो अस्तीति साध्यो धर्मः सुनिश्चितासंभवद्याधकके प्रत्यक्ष आदि का सम्बन्ध सम्भव न होने से पुण्य और पाप सिर्फ आगम से जाने जा सकते हैं ' ! पुण्य और पाप आगम के विषय हैं - प्रत्यक्ष के नही यह कहना भी योग्य नही। आगम भी किसी के प्रत्यक्ष ज्ञान पर ही आधारित होता है। जैसा कि अनुमान प्रस्तुत करते है -- आगम के वाक्य अनुमानादि प्रमाणों की अपेक्षा नही रखते अतः वे ऐसे व्यक्ति द्वारा कहे गये हैं जो उन के विषयों को साक्षात जानता हो । उदाहरणार्थ - मैं सुखी हं आदि वाक्य प्रत्यक्ष पर आधारित हैं इसीलिये उन के प्रमाण होने में अनुमानादि की अपेक्षा नही होती। अतः धर्म-अधर्म के प्रतिपादक प्रमाण वाक्य भी उन विषयों को प्रत्यक्ष जाननेवाले पुरुष द्वारा प्रयुक्त हुए हैं यह मानना योग्य है। आगमवाक्य अपौरुषेय नही हैं यह हम आगे विस्तारसे स्पष्ट करेंगे।
१९. सर्वसाधक अनुमान की निर्दोषता । - सर्वज्ञसाधक अनुमान में सर्वज्ञ यह धर्मी है। उसका अस्तित्व यह साध्य धर्म है और
१ सर्वप्रमातृसंबन्धिप्रत्यक्षादेरदृष्टं पुण्यपापं विषयो न भवति । २ वाक्यगतार्थम् । ३ यानि अनुमानाद्यनपेक्षप्रमाणवाक्यानि तानि स्ववाच्यसाक्षात्कारिणा प्रयुक्तानि यथा अहं सुखीत्यादिकं वाक्यम् ।