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- पृ. १९६]
टिप्पण
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पृष्ठ १७७ - षण्णामाश्रितत्त्वम् इत्यादि वाक्य यहां उत किया है । यह वैशेषिक दर्शन के मान्य ग्रन्थ प्रशस्तपादभाष्य का है । अतः वेदान्त के विचार में यह वेदान्तियों ने ही कहा है यह कहना ठीक नहीं । द्रव्य, गुण, कर्म आदि छह पदार्थों की व्यवस्था का वेदान्तियों ने भी खण्डन किया है ।
पृष्ठ १८१-८२ -- माया और अविद्या के परस्पर सम्बन्ध के विषय में वेदान्तियों में ही कुछ मतभेद पाया जाता है । कुछ विद्वान समष्टिरूप अज्ञानं को माया तथा व्यष्टिरूप अज्ञान को अविद्या कहते हैं । कुछ विद्वान इन दोनों में कोई भेद नहीं करते । विद्यारण्य ने पंचदशी में पहले मत का सष्टीकरण किया है' । वेदान्तसार आदि ग्रन्थों में दूसरे प्रकार का वर्णन है ।
पृ. १८६ -- वेदान्त के अनुसार ब्रह्म शब्दों से ज्ञात नही होता । अत: उपनिषद् आदि का अध्ययन भी व्यावहारिक दृष्टि से ही ब्रह्मप्राप्ति का कारण है, वास्तविक दृष्टि से नही ।
पृ. १९५ -- बेदान्त के अनुसार अन्तःकरण के समान इन्द्रिय भी सूक्ष्मशरीर में अन्तर्भूत हो कर एक शरीर से दूसरे शरीर में जाते हैं ३ ।
पृष्ठ १९२- - अत एव हि विद्वत्सु इत्यादि श्लोक स्याद्वादमंजरी में भी उद्धृत किया गया है तथा वहां इसे वार्तिककारकृत कहा है ( पद्य २९ ) । इस की दूसरी पंक्ति का पाठ वहां ब्रह्माण्डलोक-जीवानाम् ऐसा है । किन्तु यह किस वार्तिकग्रन्थ का अंश है यह ज्ञात नही हुआ ।
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यहां मन को रूपादिरहित कहना प्रतिवादी ( नैयायिक ) की अपेक्षा से है । जैन मतानुसार मन रूपादियुक्त है यह आगे स्पष्ट करेंगे (परि. ६७-६९ ) । पृष्ठ १९६- धर्म और अधर्म का कार्य जहां जहां होता है वहां वहां आत्मा होना चाहिए इस तर्क से आत्मा के सर्वगतत्व का समर्थन व्योमशिव, श्रीधर आदि ने किया है । इस के उत्तर में लेखक ने कहा है कि नैयायिक
१) प्रकरण १ - १६ सत्त्वशुद्धयविशुद्धिभ्यां मायाविद्ये च ते मते । मायाबिम्बो व शीकृत्य तां स्यात् सर्वज्ञ ईश्वरः ॥ अविद्यावशगस्त्वन्यः तद्वैचित्र्यादनेकधा । इत्यादि । २) ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य २।१।१४ कथं चानृतेन मोक्षशास्त्रेण प्रतिपादितस्यात्मैकत्वस्य सत्यत्वमुपपद्येतेति । अत्रोच्यते । नैष दोषः । सर्वव्यवहाराणामेव प्राग् ब्रह्मात्मताविज्ञानात् सत्यत्वोपपत्तेः ।। ३) पंचदशी प्रकरण १ बुद्धिकर्मेन्द्रियप्राणपंचकैर्मनसा धिया । शरीरं सप्तदशभिः सूक्ष्मं तत् लिंगमुच्यते ॥ इत्यादि । ४) व्योमवती प्रशस्तपादभाष्यटीका पृ. ४११ धर्माधर्मौ आत्मसंयोगं विना न कर्म कुर्याताम् आत्मगुणत्वात् । इसीतरह न्यायकन्दली पृ. ८८ ।