Book Title: Vishva Tattva Prakash
Author(s): Vidyadhar Johrapurkar
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

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Page 471
________________ ३३८ विश्वतत्त्वप्रकाशः [पृ.२२६ पृ. २२६-२३० इन्द्रियों के संनिकर्ष (पदार्थों से सम्बन्ध ) के छह प्रकारों का विवरण उद्योतकर ने न्यायवार्तिक (पृ. ३१ ) में दिया है। सभी इन्द्रिय प्राप्यकारी हैं -पदर्थेn से सम्बद्ध होने पर ही ज्ञान कराते है यह तर्क भी इन्होंने प्रस्तुत किया हैं (पृ. ३६ )। मीमांसकों ने सन्निकर्ष के तीन हो प्रकार माने है-संयोग, समवाय तथा संयुक्त समवाय (शालिकनाथकृत प्रकरणपंचिका प्र. ४४-४६)। जैन तथा बौद्ध मतों में सन्निकर्ष की पूरी कल्पना ही अमान्य है । बौद्ध चक्षु तथा श्रोत्र इन दो इन्द्रियों को अप्राप्यकारी मानते है। जैन श्रोत्र को प्राप्यकारी और चक्षु को अप्राप्यकारी मानते हैं। चक्षु के अप्राप्यकारी होने का समर्थन पूज्यपाद तथा अकलंकदेव आदि के ग्रन्थों में प्राप्त होता है। ___ चक्षु को प्राप्यकारी सिद्ध करने के लिये न्यायमत में चक्षु से किरण निकल कर पदार्थ तक जाते हैं और उन का पदार्थ से संयोग होनेपर ज्ञान होता है यह कल्पना की गई है । भौतिक विज्ञान के अनुसार बात ठीक उलटी है-पदार्थ से प्रसृत प्रकाशकिरण चक्षु तक पहुंचने पर पदार्थ के वर्ण का ज्ञान होता है । जैन दार्शनिकों ने पदार्थ के वर्ण के ज्ञान में और प्रकाशकिरणों में कोई सम्बन्ध नही माना है। यह भौतिक विज्ञान के अनुसार ठीक नहीं है । पृष्ठ २३१ -विशेषणं विशेष्यं च आदि श्लोक प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक ग्रन्थ का है अतः इसे नैयायिक, वैशेषिकों का स्वयं का कथन कहना उचित प्रतीत नही होता। __पृ. २३२-दिशा स्वतन्त्र द्रव्य नही-आकाश में ही उस का अन्तर्भाव होता है यह कथन पूज्यपाद के कथनानुसार ही है। पृ. २३३-दिग्द्रव्य मानसप्रत्यक्ष से ज्ञात होता है यह कथन व्योमशिव के नाम से यहां उद्धृत किया है। किन्तु व्योमवती टीका में इस तरह का कोई स्पष्ट वाक्य नहीं मिला। १) करणं वास्यादि प्राप्यकारि दृष्टं तथा चेन्द्रियाणि तरमात् प्राप्यकारीणि। २)अभि. धर्मकोष १।४३ अप्राप्तान्यक्षिमनःश्रोत्राणि । ३) सर्वार्थसिद्धि १।१९ अप्राप्यकारि चक्षुः स्पृष्टानवग्रहात् । सिद्धिविनिश्चय ४१ चक्षुः पश्यत्येव हि सान्तरम् । ४) परीक्ष मुख २।६ नार्थालोको कारणं परिच्छेद्यत्वात् तमोवत् । ५) सर्वार्थसिद्धि ५-३ दिशोऽप्याकाशेऽन्तर्भावः।

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