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-पृ.२४५]
टिप्पण
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१ पृ. २३५-दुःखजन्मप्रवृत्ति इत्यादि वाक्य न्यायसूत्र का है (अध्याय १ आह्निक १ सूत्र २)। मुक्ति की इस प्रक्रिया का विवरण प्रशस्तपाद भाष्य तथा व्योमवती (पृ. २०, तथा ६४४ ) में भी मिलता है ।
पृ. २३६-आत्मनो वै शरीराणि. इत्यादि दो श्लोक शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र भाष्य में भी (१।३।२७) उद्धृत किये हैं । वहां उनका रूपांतर इस तरह है -
आत्मनो वै शरीराणि बहूनि भरतर्षभ । योगी कुर्याद् बलं प्राप्य तैश्च सर्वैर्मही चरेत् ॥ प्राप्नुयाद् विषयान् कैश्चित् कैश्चिदुग्रं तपश्चरेत् ।
संक्षिपेच्च पुनस्तानि सूर्यो रश्मिगणानिव ।।
नाभुक्तं क्षीयते इत्यादि श्लोक न्यायकुमुदचन्द्र (पृ. ८२४ ) में भी उद्धृत है तथा इस का खण्डन भी वहां इसी तरह है ।
पृ. २३७–दुःखों के इक्कीस प्रकारों की गणना वाचस्पति ने न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका (पृ. ८) में दी है । किन्तु उसके पद्यबद्ध रूप का मूलस्थान ज्ञात नही हुआ।
पृ. २४१-४२-प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण यहां भासर्वज्ञ के न्यायसार से उद्धृत कर उसका खण्डन किया है । खण्डन का मुख्य स्वरूप यह है कि जो परोक्ष नही वह प्रत्यक्ष है यह व्याख्या निषेधात्मक है- विधानात्मक नही । यहां ध्यान रखना चाहिए कि जैन परम्परा में भी 'प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं ' लघीयस्त्रय श्लो. ३) यह विधानात्मक लक्षण सर्व प्रथम अकलंक देव ने बतलाया है। उस के पहले सिद्धसेन ने न्यायावतार में 'अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहकं ज्ञानमोदृशम् । प्रत्यक्षम् ' यही लक्षण दिया है ।
पृ. २४३-निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के अस्तित्व का खण्डन आगे विस्तार से किया है (परि. ८९)।
पृ. २४४-उपमान प्रमाण का अन्तर्भाव प्रत्यभिज्ञान इस परोक्षप्रमाण के प्रकार में होता है यह अकलंकदेव ने पहले स्पष्ट किया है (लघीयस्त्रय श्लो. १९-२१)।
पृष्ठ २४५–अन्य पदार्थों की गणना के जो दोष बतलाये है वे प्रमाचन्द्र के अनुसार है (न्यायकुसुदचन्द्र पृ. ३३६)।