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विश्वतत्त्वप्रकाशः
[पृ.२.४९
. पृष्ठ २४९-५१--यहां जिस तरह तीन योगों का विवरण दिया है वैसा न्याय दर्शन के किसी ग्रंथ में प्राप्त नही हुआ। मोक्षमार्ग के प्रकरण में योग तथा अध्यात्मविधि का साधारण निर्देश अवश्य मिलता है । इन तीन योगों के अलग अलग उल्लेख गीता में मिलते हैं, एकत्र तीनों योगों का वर्णन नही मिला । दार्शनिक ग्रन्थों में नैयायिकों के लिए ' योग, शब्द का प्रयोग नवीं सदी से ही प्राप्त होता है । इस का सम्बन्ध इन तीन योगों के प्रतिपादन से हो तो आश्चर्य नही ।
पृ. २५२-यहां तम अर्थात अन्धकार को को द्रव्य कहा है। जैन परम्परा में अन्धकार को स्वतन्त्र द्रव्य तो नहीं माना है, पुद्गल द्रव्य की एक अवस्था के रूप में स्वीकार किया है। यहां लेखक ने जो तम को द्रव्य कहा है उस का तात्पर्य यही हो सकता है कि तम केवल अभावरूप नही-भावात्मक पुद्गल द्रव्य की पर्याय है । वैशेषिक दर्शन में अन्धकार का स्वरूप प्रकाश का अभाव यही माना है२, यह भौतिक विज्ञान की मान्यता के अनकूल ही है । इस के खण्डन का प्रकार प्रभाचन्द्र जैसा है ३ ।
पृष्ठ २५४--द्रव्यं गुणः इत्यादि श्लोक विद्यानन्ब ने सत्यशासनपरीक्ष में दिया है, इस का मूल स्थान ज्ञात नही हुआ ।
पृ. २५५--यहां शक्ति को पृथक् पदार्थ मानने का समर्थन किया है । बैन परम्परा में शक्ति को स्वतन्त्र द्रव्य या पदार्थ नही माना गया है। शक्ति अनुमान से ज्ञात होती है, प्रत्यक्ष से ज्ञात नहीं होती यह बतलाना ही यहां लेखक का उद्देश प्रतीत होता है । न्यायवार्तिकतात्पर्य टीका में वाचस्पति ने शक्ति के स्वतन्त्र अस्तित्व का खण्डन किया है५ । अकलंकदेव ने शक्ति क्रिया के द्वारा अनुमेय है ऐसा निर्देश किया है । प्रभाचन्द्र ने इस का विस्तार से समर्थन किया है (न्यायकुमुदचन्द्र पृ. १५८-६४) आधुनिक रूप में इस
१) न्यायसूत्र ४।२।४६ तदर्थं यमनियमाभ्यामात्मसंस्कारो योगाच अध्यात्मविध्यु. पायैः । (भाष्य में-) योगशास्त्राच्च अध्यात्मविधिः प्रतिपत्तव्यः, स पुनः तपः प्राणायामः प्रत्याहारः ध्यानं धारणा इति। २) तत्त्वार्थसूत्र ५-२३, २४ स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः । शब्दबन्धसौक्ष्म्य-स्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवन्तश्च । ३) वैशेषिक सूत्र ५।२।१९ भाभावस्तमः। ४) न्यायकुमुदचन्द्र पृ. ६६९ ततो द्रव्यं तमः गुणवत्वात् । ;४) अनेकान्त वर्ष ३ पृ. ६६० तथा आगे । ५) पृष्ठ १०३ नातीन्द्रिया शक्तिः किन्तु कारणानां स्वरूपं वा सहकारिसाकल्यं वा ।