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वेदप्रामाण्यनिषेधः
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतः पात् । शं बाहुभ्यां धमति संपतत्रै द्यावाभूमी जनयन् देव एकः ॥ (श्वेताश्वतरोपनिषत् ३-३ ) इत्यादि सृष्टिसंहारक्रमम् ईश्वरादिदेवतासद्भावं प्रपञ्चस्य सत्यत्वमात्मना - नात्वादिकं च समर्थयन्ते । सेश्वरसांख्यास्तु,
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ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः । ऊरू तदस्य यद् वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥ चन्द्रमा मनसो जातः चक्षुषः सूर्योऽजायत । मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद् वायुरजायत । (ऋग्वेद १० - ९० - ११, १२ ) इत्यादि सृष्टिसंहारक्रमम् ईश्वरादिदेवता सद्भावं वर्णयन्ति । निरीश्वरसांख्यास्तु.
प्रकृतेर्महांस्ततोऽहंकारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि ॥
(सांख्यकारिका २२ )
इस के मुख, बाहु तथा पैर सर्वत्र हैं तथा यह अपने बाहुओं से कल्याण का निर्माण करता है ।
सेश्वरसांख्य दर्शन के अनुयायी भी ईश्वर व देवताओं को तथा सृष्टि और संहार को मानते हैं तथा आधार के रूप में ये वेदवाक्य प्रस्तुत करते हैं - ' उस ( जगद्व्यापी पुरुष ) का मुख ही ब्राह्मण थे, क्षत्रिय उस के बाहु थे, वैश्य उस की जंघाएं थे । तथा शूद्र उस के पैरों से उत्पन्न हुए थे | उस के मन से चन्द्रमा, आंखों से सूर्य, मुख से इन्द्र तथा अग्नि एवं श्वांस से वायु उत्पन्न हुआ था । '
निरीश्वर सांख्य दार्शनिक ईश्वरादि देवताओं को नही मानते, आत्मा को भोक्ता मानते है किन्तु कर्ता नही मानते, आत्मा को ज्ञान से रहित, सर्वदा शुद्ध मानते हैं । इन के मत में जगत के सृष्टि तथा संहार का क्रम इस प्रकार है : ' प्रकृति से महत्, उस से अहंकार, उस से सोलह तत्त्वों का समुदाय तथा उन सोलह में से पांच (तन्मात्रों ) से पांच भूत आविर्भूत होते हैं ' ।
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