________________
२४२
विश्वतत्त्वप्रकाशः
[७३
प्रत्यक्षत्वं प्रसज्यते इत्यतिव्यापकं लक्षणम् । द्वितीयपक्षे सम्यक्प्रत्यक्षानुभवसाधनं प्रत्यक्षमित्युक्तं स्यात् । तथा च सम्यक्प्रत्यक्षानुभवस्वरूपं निरूपणीयम् । अथ सम्यगपरोक्षानुभव एवेति चेत् तत्रापि परोक्षानुभवप्रतिषेधेन अभावोऽङ्गीक्रियते प्रत्यक्षानुभवो वा इत्याद्यावृत्या चक्रकप्रसंग अथ इन्द्रियार्थसंनिकर्षजं ज्ञानं प्रत्यक्षमिति चेन्न । षोढासनिकर्षस्य प्रागेव निराकृतत्वात्। ततश्च असंभवदोषदुष्टं प्रत्यक्षलक्षणम्। यदप्यन्यत् प्रत्यपीपदत्-अत्रायोगिप्रत्यक्ष प्रकाशदेशकालधर्माद्यनुग्रहाद् इन्द्रियार्थसंबन्धविशेषात् स्थूलार्थग्राहकं तद् यथा चक्षुःस्पर्शनसंयोगात् पटादिद्रव्यज्ञानमित्यादि-तदप्यसत् । लक्षणस्यासंभवदोषदुष्टत्वात् । कुतः चक्षुरिन्द्रियार्थसंयोगस्य सर्वत्र समवायसंबन्धस्य च प्रागेव प्रमाणतो निषिद्धत्वेन षोढासंनिकर्षस्य प्रतिषिद्धत्वात् । यदप्यन्यदवोचत्संशादिसंबन्धोल्लेखेन शानोत्पत्तिनिमित्तं सविकल्पकमित्यादि-तदप्यनुचितम् । मौनिमूकबधिरबालानां सविकल्पकप्रत्यक्षाभावप्रसंगात् । कुतः। तेषां संज्ञादिसंबन्धोल्लेखेन ज्ञानोत्पत्तिनिमित्ताभावात् । यदप्यन्यदेवाकहने पर प्रश्न होता है कि प्रत्यक्ष अनुभव क्या है? अपरोक्ष अनुभव प्रत्यक्ष है यह कहें तो पुनः पूर्वोक्त दोष होगा । ( तात्पर्य- जो परोक्ष नही है वह प्रत्यक्ष है यह निषेधरूप कथन पर्याप्त नही है, प्रत्यक्ष का कोई विधिरूप लक्षण बतलाना चाहिए।) इन्द्रिय और पदार्थों के संनिकर्ष से जो ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष है- यह लक्षण भी सदोष है। इन्द्रिय
और अर्थों के संनिकर्ष का पहले विस्तार से खण्डन किया है अतः उस पर आधारित प्रत्यक्ष का लक्षण व्यर्थ होगा। अयोगिप्रत्यक्ष के वर्णन में भी इन्द्रिय और अर्थों के सम्बन्ध से स्थूल पदार्थों का ज्ञान होना आवश्यक कहा है-वह भी इसी प्रकार निराधार होगा। संज्ञा आदि सम्बन्धों के उल्लेख के साथ जो ज्ञान होता है वह सविकल्पक है यह कथन भी ठीक नही-ऐसा मानें तो मौन रखनेवाले, गंगे अथवा बालकों को सविकल्पक प्रत्यक्ष से ज्ञान नही हो सकेगा। उन का ज्ञान शब्दप्रयोग से रहित होता है। इसी प्रकार सिर्फ वस्तु के स्वरूप को जानता है वह निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है इस कथन में सिर्फ वस्तु कहने का तात्पर्य क्या है ? अवस्तु से भिन्न वस्तु यह तात्पर्य है अथवा अन्य वस्तुओं से भिन्न एक