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विश्वतत्त्वप्रकाशः
[पृ. ४३
पृष्ट ४३ - जगत रूप आदि गुणों से युक्त है अतः कार्य है यह अनुमान उद्योतकर ने प्रस्तुत किया है ।
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आत्मा सर्वगत है अथवा नही इस का विचार परि. ५६ (पृ. १९२ ) से विस्तार से किया है |
पृष्ठ ४५-जगत् उत्पत्तियुक्त है अतः ईश्वरनिर्मित है यह कथन वाच - स्पति ने प्रस्तुत किया है । किन्तु जगत उत्पत्तियुक्त है यह कथन ही यहां विवाद का विषय है । अतः उसे आधार बना कर ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करना ठीक नही |
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पृष्ठ ४६ – कार्य का एक लक्षण – जो पहले नही होता और बाद में अस्तित्व में आता है-- पहले बतलाया (पृ. ४२ ) । इस अभूत्वाभावित्व को जगत में सिद्ध करना सम्भव नही-अमुक समय में जगत नहीं था और बाद में उत्पन्न हुआ यह कहना सम्भव नही यह अब तक बतलाया । अब कार्य का दूसरा लक्षण प्रस्तुत करते हैं - कार्य वह है जो कारण में समवेत हो तथा सत्ता के समवाय से युक्त हो । यह लक्षण भी पृथ्वी आदि में घटित नही होता । यह लक्षण निर्दोष भी नही हैं क्यों कि विनाशरूप कार्य में यह नही पाया जाताविनाश किसी कारण से समवेत नही होता; न ही वह सत्ता के समवाय से युक्त होता है ।
द्रव्य, गुण तथा कर्म में सत्ता का समवाय सम्बंध होता है यह कल्पना भी जैन दर्शन में मान्य नही है । जैन दृष्टि से द्रव्य आदि का अस्तित्व स्वत सिद्ध है-सत्ता नामक किसी गुण के सम्बन्ध की कल्पना व्यर्थ है । कुन्दकुन्द अकलंक, विद्यानन्द आदि ने इस का स्पष्टीकरण किया है३ ।
पृष्ठ ४८ - जगत के विषय में कृतबुद्धयुत्पादकत्व - यह कृत है ऐसी बुद्धि उत्पन्न होना - निश्चित नही है । यही बात आगे वेद के कर्तृत्व के विषय में कही गई है (पृ. ८७ )।
१) न्यायवार्तिक पृ. ४५७. २) न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका पृ. ५९८ । ३) कुन्दकुन्द - प्रवचनसार २ १३. तम्हा दव्वं सयं सत्ता ।; अकलंक - लघीयस्त्रय ४०स्वतोऽर्थाः सन्तु सत्तावत् सत्तया किं सदात्मनाम् ।; विद्यानन्द - आप्तपरीक्षा ७०-७१ स्वरूपेणासतः सत्त्वसमवाये च खाम्बुजे । स स्यात् किं न विशेषस्याभावात् तस्य ततोऽञ्जसा ॥ इत्यादि ।