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-पृ.११४]
टिप्पण
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स्पष्ट किया है । इस का वर्णन विद्यानन्द ने स्पष्ट रूप से किया है तथा माणिक्यनन्दि ने पत्ररूप में उस का अनुमोदन किया है ।
पृ. १०९–सांख्य दर्शन में बुद्धि को जड प्रकृति का कार्य माना है अतः वे ज्ञान को स्वसंवेद्य नहीं मान सकते । उन की दृष्टि में पुरुष का अनुभव ज्ञान से भिन्न है, ज्ञान बुद्धिका कार्य है, अनुभव पुरुष की विशेषता है । ज्ञान तथा अनुभव में यह भेद जैन मान्य नही करते । इस का विवरण प्रभाचन्द्र ने दिया है (न्यायकुमुदचन्द्र पृ. १८९)। सांख्यदर्शनविचार में लेखक ने पुनः इस विषय की चर्चा की है (परिच्छेद-८१ ८२)
पृ. १११–नैयायिक-वैशेषिक भी ज्ञान को स्वसंवेद्य नहीं मानते । उन के कथनानुसार ज्ञान एक ज्ञेय है, सभी ज्ञेय दूसरे द्वारा जाने जाते है, अतः ज्ञान को जानना भी किसी दूसरे ज्ञान को ही सम्भव है । ज्ञान अपने आप को नहीं जान सकता । इस का समर्थन व्योमशिव ने स्पष्ट रूप से किया है। इस का उत्तर भी प्रभाचन्द्र ने दिया है (न्यायकुमुदचन्द्र पृ. १८१)।
पृ. ११३-मीमांसकों का एक तर्क यह है कि ज्ञान अपने आप को नही जानता; ज्ञान यह है तभी जाना जाता है जब वह किसी दूसरे पदार्थ को जानता है, प्रकाश अपने आप को दिखाई नही देता, वह तभी जाना जाता है जब किसी दूसरे पदार्थ को प्रकाशित करता है। इस का निराकरण अकलंकदेव ने किया है। ____ पृष्ठ ११४–यहां से उन विचारों का परीक्षण आरम्भ होता है जो भ्रान्ति के स्वरूप पर आधारित हैं। इन की संख्या आठ है-(१) माध्यमिक बोद्धों की असत् ख्याति, (२) योगाचार बौद्धों की आत्मख्याति, (३) शांकरीय वेदान्त की अनिर्वचनीयख्याति, (४) सांख्यों की अलौकिकार्थख्याति, (५) प्राभाकर मीमांसकों की अख्याति, (६) चार्वाकों की अख्याति, (७) भास्करीय वेदान्त की अलौकिकार्थख्याति एवं (८) नैयायिक, जैन आदि की विपरीतख्याति । इन आठों की विस्तृत चर्चा यशोविजय ने अष्टसहस्रीविवरण में दी है । आधुनिक स्वरूप में इन का विवरण पं. दलमुख मालव णिया ने न्यायावतारवार्तिक के टिप्पणों में विस्तार से दिया है (पृ. १६०-१७०)।
१) तत्वार्थश्लोकवार्तिक पृ. १७७ तत्राभ्यासात् प्रमाणत्वं निश्चितं स्वतः एव नः। अनभ्यासे तु परत इत्याहुः केचिदासा॥ २) परीक्षामुख १-१३तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च । ३) व्योमवती पृ. ५२९ संवेदनं ज्ञानान्तरसंवेद्यं वेद्यत्वात् घटबत् । ४) बृहती टीका पृ. ८७ न हि अज्ञातेऽर्थे कश्चिद्बुद्धिमुपलभते, ज्ञाते तु अनुमानादवगच्छति । तस्मादप्र. त्यक्षा बुद्धिः । ५) न्यायविनिश्चय श्लो. १३-१८ अध्यक्षमात्मनि ज्ञानमपरत्रानुमा निकम् । नान्यथा विषयालोकव्यवहारविलोपतः ॥ इत्यादि.