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-पृ. ४२]
टिप्पण
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द्धारा ही होता है यह उनका मत है। यहां उद्धृत श्लोक में धर्म का अर्थ धर्म को साक्षात् जाननेवाला यह समझना चाहिए । इस विषय में बौद्धों का मत मीमांसकों से ठीक उलटा है। उन के मत से धर्म का साक्षात् ज्ञान ही आप्त (बुद्ध) का विशेष है-बाकी सर्व पदार्थ वे जानते हैं या नही यह देखना व्यर्थ है । जैन मत में जो सर्वज्ञ माने हैं वे धर्म-अधर्म को भी साक्षात् जानते हैं और बाकी सब पदार्थों को भी।
यहां अदृष्ट (पुण्य-पाप ) को प्रत्यक्ष का विषय सिद्ध करने के लिए जो यह कहा है कि अदृष्ट अनुमान आदि प्रमाणों से ज्ञात नहीं होता-यह प्रतिवादी (मीमासक) के मतानुसार समझना चाहिए । वैसे ग्रन्थकर्ता ने पहले अनुमान से अदृष्ट का समर्थन किया ही है (पृ. २२)।
पृ. ३९--आगम की प्रमाणता आगमप्रवर्तक पर अवलंबित है यह तथ्य यहां स्पष्ट किया है । इसी लिए बौद्ध मत में आगम को स्वतन्त्र प्रमाण नही माना है, यद्यनि बुद्ध के वचनों को वे प्रमाणभूत मानते ही हैं । जैन मत के अनुसार भी आगम स्वतः प्रमाण नही हैं- सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट होने के कारण प्रमाण है।
परि. १९–सर्वज्ञ के अस्तित्व में कोई बाधक प्रमाण नही है यह अनुमान पहले उद्धत किया है (पृ. ५-६) और उस का विवरण भी पहले आ चुका है । (पृ. २५-३०)
पृष्ठ ४१---जैन प्रमाणशास्त्र में असिद्ध हेत्वाभास के दो ही प्रकार माने हैं इस का निर्देश पहले परि. १५ के टिप्पण में किया है । प्रभाचन्द्र ने इस की विस्तार से चर्चा की है २ ।
परि. २०, पृष्ठ ४२-चार्वाकों द्वारा जगत्कर्ता ईश्वर का निषेध किया है यह पूर्वरक्ष पृ. ६ पर आया है । जैन इस से सहमत हैं। इस पर नैयायिकों के तर्कों का यहां विस्तार से विचार करते हैं । ईश्वर कर्ता है यह कथन तभी सम्भव होगा जब जगत को कार्य सिद्ध किया जाय । अतः जगत कार्य है या नही इसी का पहले विचार किया है । यह विवरण बहुत कुछ अंश में प्रभाचन्द्र के वर्णन से प्रभावित है३ ।
१) धर्मकीर्ति-सर्वं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य नः कोपयुज्यते ॥ प्रमाणवार्तिक २-३१. २) प्रमेयकमलमार्तण्ड ६-२२ : ये च विशेष्यासिद्धादयः असिद्धप्रकाराः परैरिष्टाः ते असत्सत्ताकवलक्षणासिद्धप्रकारात् नार्थान्तरम् । ३) न्यायकुमुदचन्द्र पृ. १०१ और बाद का भाग ।