________________
-पृ. ३३)
टिप्पण
३१७
लेखक ने ही आगे किया है (पृ. ४१-४२)। यहां के अनुमान में सब वस्तुएं ( सद् असद्वर्ग) यह पक्ष है, अनेक होना यह हेतु है, एक ज्ञान का विषय होना यह साध्य है तथा अंगुलियां यह उदाहरण है । यहां हेतु पक्ष में विद्यमान है अतः स्वरूप से असिद्ध नही है, तथा व्यधिकरण-असिद्ध भी नही है ( व्यधिकरण-असिद्ध वह होता है जो पक्ष में न हो कर अन्यत्र कहीं विद्यमान हो)। यहां पक्ष का अस्तित्व सुनिश्चित है अतः हेतु आश्रय-असिद्ध नहीं है तथा हेतु का अस्तित्व पक्ष में निश्चित है अतः हेतु भाग-असिद्ध अथवा अज्ञात-असिद्ध, अथवा सन्दिग्ध-असिद्ध भी नही है । हेतु पक्ष से विरुद्ध अन्यत्र कहीं नहीं है अतः वह विरुद्ध अथवा अनैकान्तिक भी नही है । प्रतिवादी को असिद्ध प्रतीत होनेवाला तत्त्व हम सिद्ध कर रहे हैं अतः यह हेतुप्रयोग अकिं. चित्कर ( व्यर्थ ) भी नही है । हेतुका पक्ष में अस्तित्व निश्चित है अतः इसे अनध्यवसित (अनिश्चित) नही कह सकते । साध्य के विरुद्ध कोई प्रमाण नही है अतः यह हेतु कालात्ययापदिष्ट (बाधित) भो नही है । यहां दृष्टान्त (उदा. हरण = अंगुलीसम्ह) में साध्य (एक ज्ञान का विषय होना) तथा साधन ( अनेक होना) दोनों विद्यमान हैं अतः दृष्टान्त भी दोषरहित है । दृष्टान्त-विषय का अस्तित्व प्रसिद्ध है अतः वह आश्रय-असिद्ध नही है तथा अनेक वस्तुएं एक ज्ञान का विषय होती हैं यह व्याप्ति भी इस दृष्टान्त से अच्छी तरह ज्ञात होती है अतः यह विपरीतव्याप्तिक भी नही है।
ष्ठ ३३--अनेक वस्तुएं एक ज्ञान का विषय होती हैं इस अनुमान के विरोध में मीमांसकों ने कहा कि अनेक वस्तुएं एक ज्ञान का विषय नही होती हैं । इस पर जैन सिद्धान्ती का कथन है कि अनेक वस्तुएं (सेना, वन आदि) हमारे जैसों के ही ज्ञान का विषय होती हैं । प्रत्युत्तर में मीमांसक आक्षेप करते हैं कि आप के ज्ञान का विषय तो सब वस्तुएं नही होती । इस प्रत्युत्तर में मीमांसकोंने यह ध्यान नहीं रखा कि जैनों का साध्य तो किसी एक ज्ञान का सब वस्तुओं को जानना है-हमारे जैसे व्यक्ति सभी वस्तुएं जानते हैं यह जैनों का साध्य ही नही है । अतः अपने पक्ष का दोष दूर न कर प्रतिपक्ष में दोष देने की गलती वे कर रहे हैं-इस को वाद की परिभाषा में मतानुज्ञा नामक निग्रहस्थान कहते हैं। मूल अनुमान में दोष न बतला कर विरोधी अनुमान प्रस्तुत करना भी वाद की परिभाषा में दोष ही है-इसे प्रकरणसमजाति कहते हैं।
१) न्यायसूत्र ५।२।२१ स्वपक्षदोषाभ्युपममात् परपक्षे दोषप्रसंगो मतानुज्ञा ।