Book Title: Vishva Tattva Prakash
Author(s): Vidyadhar Johrapurkar
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

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Page 448
________________ -पृ.२७] टिप्पण ३१५ ईश्वरके समर्थन में यह मुख्य कारण बतलाया है। यहां लेखक द्वारा प्रयुक्त वाक्य प्रभाचन्द्र के अनुकरण पर हैं । परि. १२, पृष्ठ २३–यहां उल्लिखित पूर्वपक्ष पृ. १ पर आया है ! जीव शरीर से भिन्न तथा अनादि-अनन्त है यह बात हमारे समान अल्पज्ञ लोग अनुमान से जानते हैं किन्तु योगी इसी को प्रत्यक्ष द्वारा भी जानते हैं। यहां योगी-प्रत्यक्ष शब्द विशिष्ट अर्थ में लेना चाहिए-योगी का सर्वज्ञ यह अर्थ इष्ट है । सर्वज्ञ के अस्तित्व का समर्थन अगले कुछ परिच्छेदों में प्रस्तुत किया है । परि. १३, पृ. २४-यः सर्वाणि इत्यादि श्लोक जयसेन ने पंचास्तिकाय की तात्पर्य टीका में उद्धृत किया है किन्तु इस का मूल स्थान ज्ञात नही हुआ। पृष्ठ २५-सर्वज्ञ में बाधक प्रमाण नही हैं यह तर्क पहले बतलाया है (पृ. ६) इसका विवरण यहां प्रारम्भ होता है । जगत् में कहीं भी किसी समय सर्वज्ञ नही होते यह जो प्रत्यक्ष से जानेगा वह स्वयं ( सब जगत को जानने के कारण) सर्वज्ञ होगा अतः प्रत्यक्ष से सर्वज्ञ का बाध नहीं होता। यह वाक्य अकलंक तथा विद्यानन्द के अनुकरण पर है। पृष्ठ २६-राग, द्वेष तथा अज्ञान की मात्रा प्रत्येक व्यक्ति में कम अधिक देखी जाती है अतः किसी घ्यक्ति में उनका सर्वथा अभाव भी होता है यह अनुमान समन्तभद्र, पात्रकेसरी आदि की रचनाओं में पाया जाता है । इसी के उलटा कथन है-ज्ञान, वैराग्य का किसी में परम प्रकर्ष होता है क्यों कि इन की मात्रा प्रत्येक व्यक्ति में कम अधिक देखी जाती है। पृष्ठ २७-पुरुष होना अथवा वक्ता होना सर्वज्ञ होने में बाधक है यह मीमांसकों का कथन है। उन का तात्पर्य यह है कि शरीर की रक्षा के लिए आवश्यक भोजनादि क्रियाएं करते समय सर्वज्ञ का चित्त उन क्रियाओं में लगा १) न्यायमूत्र ४।१।१९ : ईश्वरः कारणं पुरुषकर्माफल्यदर्शनात् । २) न्यायकुमुदचन्द्र पृ.३४८: कथमन्यथा सेवाकृष्यादौ सममीहमानानां केषांचिदेव फलयोगः अन्येषां च नैष्फल्यं स्यात् । ३) सिद्धिविनिश्चय ८-१६ : असकलशं जगद् विदन् सर्वज्ञः स्यात्।; आप्तपरीक्षा ९७.प्रत्यक्षमपरिच्छिन्दत् त्रिकालं भुवनत्रयम् । रहितं विश्वतत्त्वज्ञर्न हि तद् बाधकं भवेत्।। ४) आप्तमीमांसा ४ : दोषावरणयोर्हानिः निःशेषास्त्यतिशायनात् । क्वचिद् यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ।।; पात्रकेसरिस्तोत्र १८: प्रहाणमपि दृश्यते क्षयवतो निमूलात् क्वचित् तथायमपि युज्यते ज्वलनवत् कषायक्षयः॥ ५) यह कथन योगसूत्र (१-२५) ( तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम् ) के व्यासकृत भाष्य में भी है ।

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