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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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अथ मतं समयबलेन'] सम्यक् परोक्षानुभव साधनमागमः ( न्यायसार पृ. ६६ ) । स द्विविधः दृष्टादृष्टभेदात् । तत्र दृष्टार्थानां 'पुत्रकाम्येष्टया पुत्रकामो यजेत, कारीरीं निर्वपेद् वृष्टिकामः' इत्यादीनां तत्तत्फलप्राप्त्या प्रामाण्यं रे निश्चीयते । अदृष्टार्थानां 'ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत' इत्यादीनामाप्तोत्तत्वेन प्रामाण्यं निश्चीयत इति । तदयुक्तम् पुत्रकाम्यादीन् शतशः कुर्वाणानामपि फलप्राप्तेरदर्शनात् । तथा तन्मते समयज्ञाभावस्यापि प्रागेव प्रतिपादित्वेन वेदस्यान्यस्य वा आगमस्या तो कत्वाभावात् प्रागेव वेदस्याप्रामाण्यसमर्थनाच्च ।
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अथ उपमानं प्रसिद्धार्थसाधर्म्यात् साध्यसाधनं, गोसदृशो गवयः, अनेन सदृशी मदीया गौरित्यादि इति चेन्न । तस्य सादृश्यप्रत्यभिज्ञानत्वेन प्रमाणान्तरत्वाभावात् । यदि तत् प्रमाणान्तरमित्याग्रहश्चेत् तर्हि गोविलक्षणो महिषः, तस्मादयं दीर्घः, तस्मादिदं दूरं, तस्मादयं महा
नैयायिकों का तीसरा प्रमाण आगम है । शास्त्र के आधार से योग्य परोक्ष अनुभव का साधन ही आगम प्रमाण है । इस के दो प्रकार हैंई- दृष्ट तथा अदृष्ट । ' पुत्र की इच्छा हो तो पुत्रकाम्येष्टि यज्ञ करना चाहिए, वृष्टि की इच्छा हो तो कारीरी की बलि देना चाहिए ' आदि वाक्यों का फल प्रत्यक्ष देखा जाता है अतः ये दृष्ट आगम हैं-इन का प्रामाण्य दृष्ट साधनों से निश्चित है । ' स्वर्ग की इच्छा हो तो ज्योतिष्टोम यज्ञ करना चाहिए' आदि वाक्यों को अदृष्ट आगम कहते हैं - इन का फल प्रत्यक्ष नही देखा जाता । आप्तों द्वारा कहे हैं इसलिए ये प्रमाण हैं । यह आगमप्रमाण का वर्णन भी दोषपूर्ण है । पहला दोष यह है कि पुत्रकाम्येष्टि करने पर भी पुत्र नही होते ऐसे सैंकडो उदाहरण हैं । दूसरे, वेद अथवा अन्य आगम सर्वज्ञ प्रणीत नही हैं यह हमने पहले विस्तार से बतलाया है | अतः नैयायिकसम्मत आगम प्रमाण नही हो सकते ।
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चौथा प्रमाण उपमान है । प्रसिद्ध पदार्थ के साम्य से साध्य को जानना ही उपमान है, उदा. - यह गाय जैसा है अतः गवय है । इस प्रमाण का स्वरूप प्रत्यभिज्ञान से भिन्न नही है । यदि साम्य को प्रमाण मानें तो गाय से भैंस भिन्न है आदि भेद के ज्ञान को भी पृथक प्रमाण मानना
१ संकेतबलेन शास्त्रबलेन वा । २ यज्ञविशेषेण । ३ दृष्टार्थानाम् ।