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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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विनाशः प्रदीपादेर्भिन्नः अभिन्नो वा। भिन्नश्चेत् प्रदीपादेर्नित्यत्वं स्यात् । स्वस्माद् भिन्नस्य विनाशस्य तदवस्थत्वात् । अभिन्नस्य करणे प्रदीपादिरेव कृतः स्यात् । तस्य पूर्वमेव सिद्धत्वाद् वाताद्युपघातेन करणं व्यर्थमेव स्यात् । तस्मात् प्रदीपादिपदार्थानां विनाशं प्रत्यन्यानपेक्षत्वसिद्धिः। विनाशस्वभावत्वसिद्धिः ततश्च विवादाध्यासितानां क्षणिकत्वसिद्धिरिति वैभाषिकः ।
ननु तथा दृष्टान्तावष्टम्मेन व्योमादीनामपि क्षणिकत्वं सेत्स्यति । तथा हि । यत् सत् तत् क्षणिकं यथा प्रदीपः, सन्तश्चामी व्योमादय इति । अथ निरोधानां सत्त्वाभावाद् भागासिद्धो हेत्वाभास इति चेन्न । तेषामप्यर्थक्रियाकारित्वेन सत्त्वसंभवात् । तथा चोक्तम्
यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत् ।। अन्यत् संवृति सत् प्रोक्ते ते स्वसामान्यलक्षणे ॥
[उद्धृत-न्यायकुमुदचन्द्र पृ. ३८२] ( दीपक के ) नाश में हवा कारण है अथवा ( वस्त्र के नाग में ) अग्नि कारण है आदि कहना ठीक नही। यहां प्रश्न होता है कि हवा (या अग्नि ) जिसका नाश करती है वह दीपक उस नाश से भिन्न है या अभिन्न है ? यदि दापक नाश से भिन्न हो तो वह नित्य सिद्ध होगा। यदि वह नाश से अभिन्न है तो 'दीपक का नाश किया' का अर्थ 'दीपक किया' यही होगा। अतः दोनों पक्षों में हवा ने दीपक का नाश किया यह कहना सम्भव नही। दीपक का स्वभाव ही विनाश है-उस में किसी दूसरे कारण की अपेक्षा नही है। दीपक के समान सभी पदार्थ क्षणिक सिद्ध होते हैं। यहां तक वैभाषिक संप्रदाय के बौद्धों का मत प्रस्तुत किया है। ... सौत्रान्तिक बौद्धों का कथन इस से बढकर है । वे कहते हैं कि जो सत् है वह क्षणिक होता है । अतः दीपक आदि के समान आकाश आदि भी क्षणिक हैं। दो निरोध सत् नही हैं अतः क्षणिक नही हैं यह कहना भी ठीक नही। ये निरोध भी सत् हैं क्योंकि वे अर्थक्रिया करते हैं। कहा भी है-'जो अर्थक्रिया करता है उसे परमार्थ सत् कहते हैंबाकी सब संवृति सत् ( काल्पनिक) है।'
। १ प्रदीपादेरभिन्नस्य विनाशस्य करणे । २ बौद्धभेदः । ३ व्योमादयः क्षणिका: सत्त्वात् । ४ कल्पना।
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