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टिप्पण
मंगलाचरण-ग्रन्थ के इस प्रथम श्लोक में पर आत्मा. को नमस्कार किया है। यहां पर शब्द परम अथवा श्रेष्ठ के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अतः परात्मा और परमात्मा एकार्थक शब्द हैं। आत्मा के तीन प्रकार किये हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा२ । शरीरादि बाह्य पदार्थों को अपना स्वरूप माने वह बहिरात्मा है। आत्मा का आन्तरिक स्वरूप समझे वह अन्तरात्मा है । उस आन्तरिक स्वरूपका जिस में परम विकास हो वह परात्मा अथवा परमात्मा है । कुन्दकुन्द ने मोक्षप्राभूत में तथा पूज्यपाद ने समाधितन्त्र में इन तीन प्रकारों का विस्तृत विवरण दिया है।
पर आत्मा को तीन विशेषण दिये हैं-विश्वतत्त्वप्रकाश, परमानन्दमति तथा अनाद्यनन्तरूप । इन में पहला शब्द सर्वार्थसिद्धि के मंगलाचरण से प्रभावित प्रतीत होता है -पूज्यपाद ने वहां मोक्षमार्ग के प्रणेता तीर्थंकर को विश्वतत्त्वज्ञाता कहा है ३ | यहां विश्व शब्द का अर्थ सर्व अथवा सम्पूर्ण यह है । प्राचीन (वैदिक ) संस्कृत में विश्व शब्द सर्व के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। विश्वतत्त्व अर्थात् जगत के तत्त्व यह अर्थ करें तो भी हानि नही है । दोनों प्रकारों से इस विशेषण का तात्पर्य सर्वज्ञ होता है । सर्वज्ञ के अस्तित्व की सिद्धता इस ग्रन्थ का एक प्रमुख विषय है -परिच्छेद १३ से १९ तक तथा २७ में-आठ परिच्छेदोंमें इस की चर्चा है । विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध जगत में एकही तत्त्व (विज्ञान) मानते हैं अतः उन्हें विश्वतत्व (सब तत्त्व अथवा जगत के तत्त्व) यह शब्द निराधार प्रतीत होता है-इस का विचार परि. ३९ में किया है ।
आत्मा के परमानन्दमय स्वरूप का वर्णन अमृतचन्द्र ने समयसारटीका में किया है । साधारणतः आत्मा के इस गुण को सुख कहा जाता है और सांसारिक सुख से भिन्नता बतलाने के लिए इसे आत्मोत्थ सुख, अतीन्द्रिय सुख
१) परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः। समाधितन्त्र ६. २) तिपयारो सो अप्पा परमंतरबाहिरो हु देहीण । मोक्षप्राभृत ४. बहिरन्तःपरश्चेति त्रिधात्मा सर्व देहिषु । समाधितन्त्र ४. ३) मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ इस श्लोक को विद्यानन्द आदि आचार्यों ने मूल तत्त्वार्थसूत्र का मंगलाचरण माना है। ४) परमानन्दशब्दवाच्यमुत्तममनाकुलत्वलक्षणं सौख्यं स्वयमेव भविष्यतीति । समयसारटीका गा. ४१५.
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