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-८६ बौद्धदर्शनविचारः
२८५ धर्मेण गमनमूर्ध्व गमनमधस्तात् भवत्यधर्मेण । शानेन चापवर्गो विपर्ययादिष्यते बन्धः॥
( सांख्यकारिका ४४ ) इति । तस्मात् सांख्यपक्षोऽपि मुमुक्षूणामुपेक्षणीय एव स्यात् । [ ८६ क्षणिकवादनिरासः।]
अथ मतम् __ आकाशं द्वौ निरोधौ च नित्यं त्रयमसंस्कृतम् ।
संस्कृतं क्षणिकं सर्वमात्मशून्यमकर्तृकम् ॥ तथा हि। विद्युजलधरप्रदीपतनुकरणभुवनादीनां विनाशस्वभावत्वेन क्षणिकत्वं सिद्धमेव । अथ तेषां विनाशस्वभावत्वमसिद्धमिति चेन्न । वीताः पदार्था विनाशस्वभावाः विनाशं प्रत्यन्यानपेक्षत्वात् यद् यद् भावं प्रत्यन्यानपेक्षं तत् तत् स्वभावनियतं यथा अन्त्यकारणसामग्री स्वकार्यजनने। ननु तेषां विनाशं प्रत्यन्यानपेक्षत्वमसिद्धं वातानलाापघातेन विनाशदर्शनादिति चेन्न । तदसंभवात्। तथा हि। तेन क्रियमाणो नहीं । जैसा कि उन्हींने कहा है-'धर्म से ऊपर की गति मिलती है । अधर्म से अधोगति होती है । ज्ञान से मुक्ति मिलती है तथा अज्ञान से बन्ध होता है ।' अतः मोक्ष के लिए सांख्य मत उपयुक्त नहीं है।
८६. क्षणिक वादका निरास-अब बौद्धों के क्षणिकवाद का विचार करते हैं । उन के मतानुसार- 'आकाश तथा दो निरोध ( चित्त सन्तान की उत्पत्ति तथा उच्छित्ति ) ये तीन तत्त्व असंस्कृत तथा नित्य हैं। बाकी सब तत्त्व संस्कृत, क्षणिक, कर्ता से रहित तथा आत्मासे रहित हैं । ' बिजली, बादल, दीपक, शरीर, इन्द्रिय, भुवन आदि स्वभावतः विनाशशील हैं अतः क्षणिक हैं । पदार्थों के विनाश के लिए किसी दूसरे की जरूरत नही होती--वे स्वभाव से ही विनाशी होते हैं । अंतिम क्षण की कारण सामग्री स्वभावतः कार्य उत्पन्न करती है-उसे कार्योप्तत्ति के लिए किसी दूसरे की अपेक्षा नही होती उसी प्रकार पदार्थोको विनाश के लिए दूसरे की अपेक्षा नही होती अतः उनका स्वभाव ही विनाश है ।
१ चित्तसन्तानोत्पत्तिलक्षणो निरोधः सन्तानोच्छित्तिलक्षणो विनाशः द्वितीयो निरोधः । २ संस्काररहितं । ३ स्थासकोशकुशुलान्तरं अन्त्यसमये घटकार्यस्य परापेक्षत्वं नास्ति घटकार्यस्वरूपमेव ।