________________
-८९ ]
बौद्धदर्शन विचारः
ज्ञानस्यासंभवात् । सत्तादिजातिरूपादिगुण देशकालादिद्रव्यरहितस्य चाक्षुषादिप्रत्यक्षगोचरत्वासंभवाच्च । ननु स्वसंवेदन प्रत्यक्षस्य कल्पनारहितस्य स्वरूपमात्रग्राहित्वात् तस्य निर्विकल्पकत्वं भविष्यतीति चेन्न 1 तस्यापि कल्पनारहितस्य ! स्वरूपमात्रग्राहित्वासंभवात् । तथा हि । इदं नीलं जानामि ज्ञातमिदं नीलमिदं पीतं जानामि ज्ञातमिदं पीतमिति देशकालादिविशिष्टनीलपीतादिविशेष्यत्वेन विशेषणत्वेन वा ज्ञानस्वरूपस्य वेद्यत्वात् । अन्यथा अवेद्यत्वात् । तदुक्तम् ।
अर्थे नैव विशेषो हि निराकारतया धिया ।
न हि ज्ञानमिति ज्ञानं तस्मात् सालम्बना मतिः ॥ अन्यथेयमनालम्बा लभमानोदया क्वचित् । हन्यादेकप्रहारेण बाह्यार्थपरिकल्पनाम् ॥
इत्यतिप्रसज्यते । ननु एवंविधोऽतिप्रसंगोऽङ्गीक्रियत इति योगाचार माध्यमिकाववोचताम् । तावप्यनात्मज्ञौ । आत्मख्यातिनिराकरणेन असत् ख्याति
२९९
—
कल्पनाएं नही होती यह आक्षेप हो सकता है । किन्तु यह उचित नही । ज्ञान का जो ज्ञान होता है वह भी ज्ञान के विषय को ले कर ही होता है - यह नीली वस्तु को जानता हूं, पीली वस्तु को जानता हूं इस प्रकार विषय - विशिष्ट ही ज्ञान होता है -विना किसी विशेषण के मात्र ज्ञान का ज्ञान नही होता । जैसा कि कहा, निराकार बुद्धि से अर्थ में कोई विशेष नही होता, सिर्फ 'ज्ञान' ऐसा कोई ज्ञान नही होता अतः बुद्धि को आलम्बन सहित माना है । यदि बुद्धि कहीं आलम्बन रहित उत्पन्न हो तो इस एक बात के बल से ही बाह्य पदार्थों की कल्पना नष्ट हो जायगी " बाह्य पदार्थों के अभाव की यह आपत्ति योगाचार तथा माध्यमिक बौद्धों को इष्ट हीं है । किन्तु उन का बाह्य पदार्थ - अभाव वाद अयोग्य है यह पहले ही विस्तार से स्पष्ट किया है । दूसरे विषयरहित सिर्फ ज्ञान का भी ज्ञान हो तो उस में भी अस्तित्व तथा गुणत्व ये
"
"
१ निराकारतया धिया अर्थे विशेषो न हि । २ निराकारधिया ज्ञानमिति ज्ञानं न हि । ३ अर्थो ज्ञानसमन्वितो मतिमता वैभाषिकेणादृतः प्रत्यक्षं न हि बाह्य वस्तु विषयं सौत्रांन्तिकेणादृतम् । योगाचारमतानुसारिमतयः साकारबुद्धिं परे मन्यन्ते खलु मध्य मा जड. धियः शुद्धां च तां संविदम् ॥