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-८२] सांख्यदर्शनविचारः
२६९ ननु समन्वयादिति हेतो'भविष्यतीति चेत् समन्वयादि ति कोऽर्थः मेदाना रागद्वेषमोहान्वितत्वं बुद्धिसुखाद्यन्वितत्वं चेति चेन्न । आत्मातिरिक्तपदार्थानां तदन्वयाभावेन हेतोः स्वरूपासिद्धत्वात् । तथा हि। रागादिबुद्धयादयः आत्मन्येव वर्तन्ते आत्मधर्मत्वात् अनुभववत् । अथ रागादिबुद्धयादीनामात्मधर्मत्वमसिद्धमिति चेन्न। रागादिबुद्धधादय आत्मधर्मा एव स्वसंवेद्यत्वादनुभववदिति तसिद्धेः। ननु रागादिबुद्धयादीनां स्वसंवेद्यत्वमसिद्धमिति चेन्न। रागादिबुद्धयादयः स्वसंवेद्याः स्वप्रतिबद्धव्यवहारे संशयादिव्यवच्छेदाय परानपेक्षत्वात् अनुभववदिति तसिद्धेः। अयमप्यसिद्ध इति चेन्न । बुद्धयादयः स्वप्रतिबद्धव्यवहारे संशयादिव्यवच्छेदाय परानपेक्षाः अर्थपरिच्छित्ति रूपत्वात् व्यतिरेके पटादिवदिति तत्सिद्धेः। अथ रागादीनामर्थपरिच्छित्तिरूपाभावात् कथं तसिद्धिरिति चेन्न । रागादयः स्वप्रतिबद्धव्यवहारे संशयादिव्युदासाय परान्नापेक्षन्ते इन्द्रियाविषयत्वेऽपि प्रत्यक्षत्वात् व्यतिरेके पटादिवदिति तसिद्धः। तथा रागादयः स्वसंवेद्याः इन्द्रियाविषयत्वेऽपि प्रत्यक्षत्वात् अनुभववदिति च । तथा आत्मानः रागादिबुद्धयाद्यन्विता भवन्ति चेतन
सब भेद समन्वित हैं – राग, द्वष तथा मोह इन तीन में सब का समन्वय होता है - अतः इन का एक मूल कारण है यह कहना भी ठीक नहीं । राग, द्वेष, मोह, बुद्धि, सुख, दुःख, आदि आत्मा के गुणधर्म हैं अतः आत्मा से भिन्न अचेतन पदार्थों का इन में समन्वय सम्भव नही । राग, द्वेष आदि को आत्मा के गुणधर्म मानने का कारण यह है कि वे स्वसंवेद्य हैं - उन के विषय में कोई भी सन्देह किसी दूसरे द्वारा दूर नही होता - उन का ज्ञान आत्मा को स्वयं ही होता है। राग, द्वेष आदि का प्रत्यक्ष ज्ञान तो होता है किन्तु वे इन्द्रियों से ज्ञात नही होते अतः उन्हें स्वसंवेद्य मानना आवश्यक है । राग, द्वेष आदि चैतन्य के गुणधर्म हैं अतः वे आत्मा से भिन्न अचेतन पदार्थों में समन्वित नही हो सकतेआत्मा में ही समन्वित होते हैं । अतः भेदों के समन्वित होने से भी प्रकृति की सिद्धि नही होती।
१ प्रकृतेः कारणत्वम् । २ रागद्वेषबुद्धिसुखाद्यन्वयाभावेन । ३ ये स्वप्रतिबद्धव्यवहारे संशयादिव्युदासाय परान् अपेक्षन्ते ते इन्द्रियाविषयत्वेऽपि प्रत्यक्षा न भवन्ति यथा पटादिः।