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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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स्वयूथ्यान् प्रति । तस्मात् सांख्योक्तप्रकारेणापि पदार्थानां याथात्म्यानुपपत्तः
रूपैः सप्तभिरेवं बध्नात्यात्मानमात्मना प्रकृतिः। सैव च पुरुषस्यार्थ विमोक्ष यत्येकरूपेण ॥
(सांख्यकारिका ६३) वत्सविवृद्धिनिमित्तं क्षीरस्य यथा प्रवृत्तिरशस्य । पुरुषविमोक्षनिमित्तं प्रवर्तते तद्वदव्यक्तम् ॥
( सांख्यकारिका ५७) इत्यादिकं कथं शोभते। [८५ सांख्यसंमता मुक्तिप्रक्रिया।]
ननु, दुःखत्रयाभिघाताजिज्ञासा तदपघातके हेतौ। दृष्टे सापार्था चेन्नैकान्ता'त्यन्ततोऽभावात् ॥ दृष्टवदानुश्रविकः स ह्यविशुद्धिक्षयातिशययुक्तः । तविपरीतःश्रेयान् व्यक्ताव्यक्तशविज्ञानात् ।।
(सांख्यकारिका १, २) एतयोाख्या-दुःखत्रयाभिघातात्-आध्यात्मिकमाधिभौतिकमाधिदैविकअनुचित है। इसीलिए ' सात रूपों से प्रकृति अपने आप को बद्ध करती है तथा पुरुष के लिए वह एक रूप से अपने आपको मुक्त करती है। यह कथन तथा 'जिस तरह अचेतन दूध बछडे की वृद्धि का कारण होता है उसी तरह अचेतन अव्यक्त (प्रकृति ) पुरुष के मोक्ष के लिए प्रवृत्त होती है' यह कथन निराधार सिद्ध होता है।
८४. सांख्योंकी मुक्ति प्रक्रिया-अब सांख्य मत की मुक्ति की प्रक्रिया का विचार करते हैं। उन का कथन है कि 'तीन प्रकार के दुःखों से पुरुष पीडित होते हैं अतः उन दुःखों को दूर करने के कारण जानने की इच्छा होती है । लौकिक कारणों से यह जिज्ञासा पूर्ण नही होती । क्यों कि इन से दुःख की निवृत्ति पूर्णतः या सर्वदा के लिये नही
१ सांख्यान् । २ महान् अहंकारः पञ्चतन्मात्रा इति सप्त । ३ प्रकृतिर्बध्यते प्रकृतिविमुच्यते । ४ सैव च प्रकृतिः पुनः आत्मना आत्मानं विमोक्षयति किमर्थं पुरुषस्यार्थम् । ४ निराकृता । ५ नियमो न । ६ यज्ञे हिंसोक्तत्वातः ।