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-४३] मायावादविचारः
१३७ [४३. भ्रान्तिविषयकवेदान्तमतनिरासः।]
ननु शुक्तिकादौ प्रतीयमानं रजतादिकं सद्रूपं न भवति आत्मवदः बाध्यत्वासंगात्, असएमए र सवति खरविरणवदरतिभासप्रसंगात् अपि तु सदसदविलक्षणमनिर्वाच्यमिति प्रतीतिबाधाभ्यां परिकल्पते । सा च अविद्यैव वेद्यैः रजतादिभिः सह भ्रम इत्युच्यते । तथा चोक्तम्
सत्वेन बाध्यते तावन्नासत्वे ख्यातिसंभवः।
सदसद्भ्यामनिर्वाच्याऽविद्या वेयैः सह भ्रमः॥ इति।। तच्चानिर्वाच्यरजतं अधिष्ठानभूतशुक्त्यज्ञानादुपादानकारणभूतादुत्पद्यते। अधिष्ठानभूतशुक्तिज्ञानात् सोपादानं रजतं विनश्यतीति तदेव बाध्यते नान्यदिति तावन्मात्रस्य भ्रान्तत्वं नान्यस्य । तदुक्तं
यावत्तु बाध्यते तावद् भ्रान्तं सर्वं न बाध्यते।
साधिष्ठानो भ्रमस्तस्माद् युक्तो बाधो हि सावधिः ॥ इति । ४३. भ्रान्तिविषयक वेदान्त मत का निरास-मायावादियों के मतानुसार भ्रमज्ञान का विषय सत् तथा असत् दोनों से विलक्षण अनिर्वाच्य है - यह सत् होता तो आत्मा के समान अबाध्य होता तथा असत् होता तो गधे के सींग समान इस का ज्ञान ही नही होता। इस सदसद्विलक्षण अविद्या को वेद्य ( ज्ञान के विषय ) चांदी आदि साथ होने पर भ्रम कहा जाता है। कहा भी है - 'सत्त्व हो तो बाध नही होगा, असत्त्व हो तो ज्ञान नही होगा; अतः अविद्या सत् और असत् दोनों से भिन्न अनिर्वाच्य है, इसी को वेद्य के साथ होने पर भ्रम कहते हैं।' इस अनिर्वाच्य चांदी का उपादान कारण सीप का अज्ञान है - सीप का अज्ञान नष्ट होते ही यह चांदी भी नष्ट होती है। अतः इतने बाधित अंश को ही भ्रान्त कहना चाहिये। कहा भी है - जितना ज्ञान बाधित होता है उसे भ्रान्त कहते हैं, सब ज्ञान बाधित नही होता । अतः भ्रन को अधिष्ठानसहित कहा है तथा बाध को मर्यादित कहा है। ' अतः मायावादियों के अनुसार प्रस्तुत प्रसंग में चांदी को अनिर्वाच्य मानना चाहिए अन्यथा उस के ज्ञान और बाध की
१ मायावादी । २ इदं रजतं नेदं रजतम् इति । ३ शुक्तिकादौ रजतप्रतीति । ४ शुक्तौ रजतम् । ५ घटपटादिप्रपंचः। .