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-५३ ] मायावादविचारः .
१८३ मेदादविद्याभेद इति चेत् तर्हि तत्संस्कारभेदः कुतो जायते । प्रमातृभेदादिति चेत् प्रमातृ मेदोऽपि कुतो जायते । अविद्याभेदादिति चेत् अविद्याभेदोऽपि कुतो जायते। संस्कारभेदादिति चेन्न । चक्रकाश्रयप्रसंगात् । तथा हि। यावदविद्याभेदो नास्ति तावत् प्रमातृमेदाभावः। यावत् प्रमातृभेदो नास्ति तावत् संस्कारभेदाभावः। यावत् संस्कारभेदो नास्ति तावदविद्याभेदाभावः। यावदविद्याभेदो नास्ति तावत् प्रमातृभेदाभाव इति । अथ अविद्याया भेदाभावेन एकत्वेऽपि प्रमातृभेदो भविष्यति इति चेत् न । उपाधिभूताया अविद्याया एकत्वे उपाधीयमानस्यात्मनोऽप्येकत्वे प्रमातृभेदस्यानुपपत्तेः। ननु अविद्यायाः स्वभावतो भेद इति चेत् तर्हि प्रमातृणामपि स्वभावत एव भेदसद्भावे को विरोधः। अथ सुपर्ण विप्राः कवयो वचोभिरेकं सन्तं बहुधा कल्पयन्ति।
(ऋग्वेद १०-११४-५) इति श्रुतिविरोध इति चेन्न । तच्छ्रुतेः परमात्मैक्यप्रतिपादनपरत्वेन जीवास्मैक्यप्रतिपादनाभावात् । श्रुतेः प्रामाण्याभावस्य प्रागेव प्रमाणैः समर्थितत्वाच्च । अथान्तःकरणमेव प्रमातृभेदकं भविष्यतीति चेन्न । अन्तःकरणं न प्रमातृभेदकम् अविद्याकार्यत्वात् करणत्वात् जडत्वात् जन्यत्वात् चक्षुमानें तो यह चक्राश्रय होता है - प्रमाताओं में भेद अविद्या से, अविद्या में भेद संस्कार से तथा संस्कार में भेद प्रमाताओं के भेद से माना गया है। यदि अविद्या को भेदरहित माना जाता है तथा आत्मा भी भेदरहित है, तो प्रमाता-जीवों को ही भेदसहित मानना कैसे संभव होगा? अविद्या में स्वभावतः भेद मानें तो प्रश्न होता है कि जीवों में ही स्वभावतः भेद मानने में क्या हानि है ? जीवों के भेद के विरुद्ध 'यह पक्षी एक है किन्तु विद्वान कवि उसकी बहुत प्रकारों से वचनों से कल्पना करते हैं ' इस वेदवचन को उद्धत करता भी पर्याप्त नही । एक तो यह वचन परमात्मा के एकत्व का सूचक है - जीवों के एकत्व का नही। दूसरे, वेदवचन अप्रमाण हैं यह भी पहले स्पष्ट किया है। अन्तःकरणों के भेद से प्रेमाताओं में भेद मानना उचित नही यह पहले स्पष्ट किया है - अन्तःकरण जड, करण, अविद्या का कार्य है अतः
१ आत्मानम् ।