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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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[ ६१. सामान्य सर्वगतत्वाभावः । ]
यथा आत्मनः सर्वगतत्वम् अणुपरिमाणत्वं च नोपपनीपद्यते तथा सामान्यस्यापि सर्वगतत्वं' शून्यत्वं च न जाघट्यत इति निरूप्यते । तथा सत्ताद्रव्यत्वगुणत्वक्रियात्वादिजातीनां सर्वत्र सर्वगतत्वे सकलव्य क्तिषु * व्यक्त्यन्तराले च सर्वासां जातीनामुपलम्भः स्यात् । न चोपलभ्यते । तस्मात् सर्वत्र सर्वगतत्वाभाव एव । तथा हि । भावसामान्यं सर्वत्र सर्वगतं न भवति सकल मूर्तिमत् द्रव्य संयोगरहितत्वात् गन्धवत् । अथ सामान्यस्य सकलमूर्तिमत् द्रव्यसंयोगरहितत्वमसिद्धमिति चेन्न । सामान्यं सकलमूर्तिमत् द्रव्यसंयोगि न भवति महापरिमाणानधिकरणत्वात् गन्धवदिति प्रमाणसद्भावात् । ननु सामान्यस्य महापरिमाणानधिकरणत्वमप्यसिद्धमिति चेन्न । सामान्यं महापरिमाणाधिकरणं न भवति अद्रव्यत्वात् आश्रितत्वात् परतन्त्रैकरूपत्वात् रूपवदिति प्रमाण सद्भावात् । तथा सामान्यं सर्वत्र सर्वगतं न भवति महापरिमाणानधिकरणत्वात्
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६१. सामान्य सर्वगत नही है — अब तक यह स्पष्ट किया कि जीव सर्वगत या अणु आकार का नही है । इसी प्रकार सामान्य भी सर्वगत या शून्यरूप नही हो सकता यह अब स्पष्ट करते हैं । यदि सत्ता, द्रव्यत्व, गुणत्व, क्रियात्व आदि जातियां सर्वगत होतीं तो सभी व्यक्तियों में तथा व्यक्तियों के बीच के प्रदेश में उनकी प्रतीति होती । ऐसी प्रतीति नही होती अतः जातियां सर्वगत नही हैं । भाव- सामान्य ( अस्तित्व ) सर्वगत नही है क्यों कि गन्ध आदि के समान यह सब मूर्त द्रव्यों के संयोग से रहित है । सामान्य महान् परिमाण का नही है अतः वह सब मूर्त द्रव्यों के संयोग से युक्त नही है । सामान्य द्रव्य नही है, आश्रित है तथा परतन्त्र है अतः वह रूप आदि के समान ही असर्वगत है - महान परिमाण का नही है ।
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इस पर वैशेषिकों का कथन है कि सामान्य सर्वत्र सर्वगत नही
होता अपनी सब व्यक्तियों में वह विद्यमान प्रतीत होता है अतः उसे
सर्वगत कहते हैं । किन्तु यह कथन उचित नहीं । सब व्यक्तियों में
३ सत्तासामान्य द्रव्यसामान्य इत्यादि ।
१ नैयायिकमते । २ बौद्धमते । ४ गोमहिषाश्वघटपटादिव्यक्तिषु ।