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सर्वगतत्वविचारः
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अद्रव्यत्वात् आश्रितत्वात् परतन्त्रैकरूपत्वात् रूपादिवदिति च प्रमाणसद्भावात् सामान्यं सर्वत्र सर्वगतं न भवतीति निश्चीयते ।
ननु अत एव स्वव्य कि सर्वगतत्वमङ्गीक्रियते सर्वेषां सामान्यानां स्वव्यक्तिसंबद्धत्वेन प्रतीयमानत्वादिति चेन्न । व्यक्तीनां लोके सर्वत्र सद्भावेन तत्सर्वगतत्वेऽपि सर्वसर्वगतपक्षादविशेषात् । किं च । स्वव्यक्ति सर्वगतत्वे स्वव्यक्तीनामन्तरालेऽपि तत् सामान्यमुलपलभ्येत । न चोपलभ्यते, तस्मादन्तराले नास्तीति निश्चीयते । ननु अन्तराले व्यञ्जकव्यक्तीनाम'भावान्नोपलभ्यते न त्वसत्त्वादिति चेन्न । वीतं सामान्यं व्यक्त्यन्तराले असदेव आश्रितत्वेनैव प्रतीयमानत्वात् रूपवदिति प्रमाणसद्भावात् । व्यक्त्यन्तराले सामान्यस्य सद्भावे सामान्यानामनाश्रितत्वेनावस्थानप्रसंगाच्च । सामान्यं नित्यद्रव्यम् अनाश्रितत्वेनावस्थितत्वात् आकाशवत् । किं च । व्यक्त्युत्पत्तौ तत्र स्थितं सामान्यं समवैति अन्यस्मादागतं पा व्यक्त्या सहोत्पद्यमानं वा । प्रथमपक्षे व्यक्त्युत्पत्तेः पूर्वं सामान्यस्य अन्नाश्रितत्वं स्यात् । तथा च सामान्यं नित्यद्रव्यम् अनाश्रितत्वात् परमाणुव
व्याप्त होना तथा सर्वत्र व्याप्त होना इन में भेद करना उचित नही क्यों कि व्यक्तियां सर्वत्र होती हैं । सामान्य अपनी सब व्यक्तियों में व्याप्त है यह मानने पर भी यह प्रश्न बना रहता है कि उन व्यक्तियों के बीच के प्रदेश में उस की प्रतीति क्यों नही होती ? उस प्रदेश में व्यक्तियां नही होतीं अतः सामान्य प्रतीत नही होता किन्तु फिरभी उस का अस्तित्व वहां होता ही है यह कथन भी ठीक नही । व्यक्तियां जहां नही होती वहां सामान्य का अस्तित्व मानने पर सामान्य आश्रित होता है यह न्याय-मत का कथन गलत सिद्ध होगा । यदि सामान्य आश्रयरहित भी रह सकता हो तो न्याय-मत के ही अनुसार वह नित्य द्रव्य सिद्ध होगा नित्य द्रव्यों को छोडकर छहों पदार्थ आश्रित ही होते हैं यह उन का मत है
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इस विषय का प्रकारान्तर से विचार करते हैं । जब कोई व्यक्ति उत्पन्न होती है तो उसी प्रदेश का सामान्य उस से सम्बद्ध होता है अथवा दूसरे प्रदेश से वहां आता है अथवा व्यक्ति के साथ सामान्य भी
१ घटपटादीनाम् । २. षण्णामाश्रितत्वमन्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः इति नैयायिकः । वि. त. १४