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-७३ ] प्रमाणविचारः
२३९ अनिवार्यो बोभूयते । तस्माद् भोगात् प्रागुपार्जिताशेषकर्मपरिक्षयाङ्गीकारे तत्कर्मफलभोगावसरे इच्छाद्वेषप्रयत्नैः कायवाङ्मनोव्यापारसभावात् अभिनवकर्मबन्धप्रवाहो दुरुत्तरः स्यात् इति कदाचित् कस्यापि तन्मते मोक्षो नास्तीति निश्चीयते। तस्मान्मोक्षाकोक्षिणां परीक्षकाणां वैशेषिकपक्ष उपेक्षणीय एव स्यात् नोपादेय इति स्थितम् । [ ७३. न्यायदर्शनविचारे प्रत्यक्षलक्षणपरीक्षा। ] ___अथ मतं 'प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासछलजातिनिग्रहस्थानानां तत्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः' (न्यायसूत्र १-१-१), इति नैयायिकपक्षो मुमुक्षणामुपादेय इति-तदयुक्तम् । तदुक्तप्रकारेण षोडशपदार्थानों याथात्म्यासंभवात् । तथा हि । प्रमाणं नाम किमुच्यते । अथ सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणम् (न्यायसार पृ. १ ) तत्र सम्यग्ग्रहणं संशयविपर्ययव्यवच्छेदार्थम् । अनुभवग्रहणं स्मरणनिवृत्त्यर्थम् । साधनग्रहणं प्रमातृप्रमेययोर्व्यवच्छेदार्थम् । प्रकर्षण होता है जब बोलने की इच्छा से वायु को प्रेरित कर कण्ठ में लाया जाता है । तथा मन का कार्थ-विचार तभी होता है जब स्मरण की इच्छा से मन तथा संस्कारों के साथ आत्मा जाने हुए पदार्थों का स्मरण करता है। तात्पर्य-सब कार्य इच्छा और द्वेष के विना नही हो सकते । इच्छा और द्वेष तभी होते हैं जब मिथ्याज्ञान विद्यमान हो- तत्त्वज्ञान न हो । तात्पर्य यह हुआ कि कमां का फल भोग तभी संभव है जब मिथ्याज्ञान विद्यमान होता है। अतः उस से उत्तरोत्तर नये कर्मोका बन्ध होता रहेगा यह भी स्पष्ट है। अतः सिर्फ फलभोग से ही कर्मों का क्षय होता हो तो कर्मबन्ध की परस्परा कभी खण्डित नही होगी-मोक्ष प्राप्त होना संभव नही होगा। अतः मोक्ष के लिए वैशेषिक पक्ष का अनुसरण उपयोगी नही है यह स्पष्ट हुआ।
७३. न्यायदर्शन का प्रत्यक्ष लक्षण-न्यायदर्शन का प्रथम मन्तव्य है कि 'प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जलप, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रहस्थान इन पदार्थों का तत्त्वज्ञान होने से निःश्रेयस प्राप्त होता
१ प्रमाता प्रमेयं च प्रमाणं न भवति ।
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