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-५७] आत्मविभुत्वविचारः
१९७ निर्गमनं मरणं, ततो निर्गतस्योपरिष्टादसंख्यातयोजनपर्यन्तमुत्क्षेपणं स्वर्गमनम् अधस्तादसंख्यातयोजनपर्यन्तमवक्षेपणं नरकगमनमित्यादिक सर्वमात्मनः सर्वगतत्वे न जाघटयते। कुतः सर्वेषामात्मनां सर्वत्र सर्वदा सर्वात्मना सद्भावात् । अथ तत् सर्व मा भूदिति चेन्न ।
अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥
(महाभारत, वनपर्व ३०-२८) इति त्वयैव निरूपितत्वात् ।
अथादृष्टविशिष्टान्तःकरणस्यैव जन्ममरणव्यवस्था स्वर्गनरकादिगमनव्यवस्था जन्तुरिति व्यपदेशश्च बोभूयत इति चेन्न । प्रमाणतर्वाधितत्वात् । तथा हि । वीतं करणं नादृष्टविशिष्टम् अनात्मत्वात् अचेतनत्वात् विशेषगुणरहितत्वात् कालवत् । असर्वगतत्वात् सक्रियत्वात् अणुपरिमाणत्वात् परमाणुवत् । शानकरणत्वात् दुःखत्वात् इन्द्रियत्वात् अनित्यत्वात् से असंख्यात योजन ऊपर जाकर आत्मा स्वर्ग में पहंचता है तथा नीचे जाने से नरक में पहुंचता है। यदि आत्मा सभी जगहों में है तो इन सब जन्म, मरण, स्वर्ग, नरक के कथन को कुछ अर्थ नही रहेगा। इस के प्रतिकूल न्यायमन में इन का अस्तित्व मान्य किया है। जैसे कि कहा है - ' यह प्राणी अज्ञानी है तथा अपने सुखदुःख का स्वामी नही है। ईश्वर की प्रेरणानुसार वह स्वर्ग में या नरक में जाता है।'
जन्म, मरण, स्वर्ग, नरक ये सब अदृष्ट से विशिष्ट अन्तःकरण के होते हैं - आत्मा के नही यह कथन संभव नही। अन्तःकरण कालके समान अचेतन है, आत्मा नही है, विशेष गुणों से रहित है अतः वह अदृष्ट से विशिष्ट नही हो सकता। अन्तःकरण परमाणु के समान सक्रिय है, अणु आकार का है, सर्वगत नही है तथा चक्षु के समान अनित्य है, इन्द्रिय है, दुःखरूप है एवं ज्ञान का साधन है अतः वह अदृष्ट से विशिष्ट नही हो सकता । अन्तःकरण को न्याय मत में नित्य माना है किन्तु यह उचित नही। अन्तःकरण चक्षु के समान ज्ञान का साधन, इन्द्रिय तथा दःखरूप है अतः वह अनित्य सिद्ध होता है। इन्हीं अनुमानों को दूसरे रूप में भी रखा जा सकता है - अदृष्ट प्रयत्न के समान आत्मा का
१ मनः इन्द्रियादि।