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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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ततो वेदान्तपक्षेण मोक्षादीनामसंभवः।
तद्धेतुतत्त्वविद्यादेरभावाच्छास्त्रयुक्तितः॥ [५६. आत्मनः सर्वगतत्वाभावः।]
ननु प्रमातणां तथा स्वभावत एव भेदोऽस्तु तेषामनन्तत्वाङ्गीकारात् । तथा चोक्तम्
अत एव हि विद्वत्सु मुच्यमानेषु संततम् ।
ब्रह्माण्डोदरजीवानामनन्तत्वादशन्यता ॥ इति । तथा तेषामनन्तत्वेन प्रतिशरीरं भेदेपि सर्वेषां सर्वगतत्वमेव, न शरीरमात्रत्वं नापि वटकणिकामात्रत्वम् । तथा हि। आत्मा सर्वगतः द्रव्यत्वे सत्यमूर्तत्वात् आकाशवदिति नैयायिकादयः प्रत्यवातिष्ठिपन् । तत्र मूर्तत्वं नाम किमुच्यते। अथ रूपादिमत्त्वं मूर्तत्वं तत्प्रतिषेधस्वरूपं रूपादिरहितत्वममूर्तत्वमिति चेत् तदा द्रव्यत्वे सति रूपादिरहितत्वादित्युक्तं स्यात् । तथा च मनोद्रव्येण हेतोरनेकान्तः स्यात् । तत्र द्रव्यत्वे सति रूपादिरहितत्वस्य सदभावेऽपि सर्वगतत्वाभावात् । ननु असर्वगतद्रव्यपरिमाणं मूर्तत्वं तत्प्रतिषेधेन सर्वगतद्रव्यपरिमाणममूर्तत्वमिति चेत् तदा द्रव्यत्वे सति सर्वगतत्वादित्युक्तं स्यात्। तथा च साध्यसमत्वेन के अनुसार मोक्ष के कारण तत्त्वज्ञान का वेदान्त मत में अभाव है अतः उस के अनुसरण से मोक्ष की प्राप्ति संभव नही है।'
५६. आत्मा सर्वगत नहीं है -नैयायिकों के मत में जीवों का भेद स्वाभाविक है तथा जीवों की संख्या अनन्त है। कहा भी है - ' ब्रह्माण्ड में अनन्त जीव हैं इसी लिए विद्वानों के सतत मुक्त होते रहने पर भी ब्रह्माण्ड सूना नही होता ।' किन्तु वे सभी जीवों को सर्वगत मानते हैं - शरीर से मर्यादित अथवा वटबीज जैसा सूक्ष्म नही मानते । उन का कथन है कि आत्मा आकाश के समान अमूर्त द्रव्य है अतः वह सर्वगत है। किन्तु यह अनुमान सदोष है। अमूर्त का तात्पर्य रूप आदि से रहित होना है। मन भी रूप आदि से रहित है किन्तु सर्वगत नही है। अतः अमूर्त और सर्वगत होने में नियत सम्बन्ध नहीं है। असर्वगत द्रव्य का आकार ही मूर्तत्व
१ नैयायिकमते मनसः अणु परिमाणत्वम् ।
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