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मायावादविचारः
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युगपद्ग्रहणानुपपत्तेः। कुतः एतस्मादस्य भेदोऽस्तीत्यवधिः अवधीयमानवस्तुग्रहणपूर्वकत्वेनैव मेदग्रहणं भवतीत्यङ्गीकारात् । तस्मात् प्रत्यक्षं भेदग्राहकं न भवति । तदुक्तम्
आहुर्विधात प्रत्यक्ष न निषेद्धृ विपश्चितः। नैकत्वे आगमस्तेन प्रत्यक्षेण प्रबाध्यते ॥
(ब्रह्मसिद्धि २-१) तथा प्रत्यक्षस्य मेदग्राहकत्वाभावे तत्पूर्वकानुमानादीनां नितरां मेदग्राहकत्वाभाव एव स्यात् । तस्माद् मेदसंवेदनं न प्रमाण निबन्धनम् अनिरूपितप्रमाणकत्वात् भेदसंवेदनत्वात् स्वप्नसंवेदनवदिति ।
तदयुक्तम् । तदीयवचनस्य प्रतीतिविरुद्धत्वात् । कुतः। मिन्ना एते. इति प्रतीतत्वात् । तथा हि । पायसं गृहत् प्रत्यक्षं पायसाभावं तदभावाश्रयान् विड्गोमयादिपदार्थान् व्यवच्छिन्ददेवं गृह्णाति । तद्व्यवच्छेदाभावे विड्गोमयादीन् परिहृत्य पायसे एव जीवानां प्रवर्तनासंभवात् । तथा मेद का ज्ञान नही होता यह माना है – इस से अभेदरूप तत्त्व ही सिद्ध होता है। वस्तु और भेद दोनों का एकसाथ ज्ञान भी संभव नही क्यों कि वस्तु के ज्ञान के विना भेद का ज्ञान नही होता यह अभी स्पष्ट किया है । तात्पर्य - प्रत्यक्ष से वस्तु में भेद का ज्ञान संभव नही है। जैसे कि कहा है – ' विद्वानों ने प्रत्यक्ष को विधायक कहा है - निषेधक नही । अतः एकत्व का प्रतिपादन करनेवाले आगमवाक्य प्रत्यक्ष से बाधित नही होते।' अनुमान आदि प्रमाण प्रत्यक्षपर अवलम्बित होते हैं । अतः प्रत्यक्ष से अज्ञात भेद को अनुमानादि से नही जाना जा सकता। तात्पर्य -- भेद का ज्ञान प्रमाण सिद्ध नही है अतः स्वप्नज्ञान के समान ही अप्रमाण है।
वेदान्तियों का यह सब विवेचन अयोग्य है क्यों कि यह प्रतीति के विरुद्ध है । ' ये पदार्थ भिन्न हैं ' ऐसी स्पष्ट प्रतीति विद्यमान होती है। जब खीर का ज्ञान होता है तब खीर के अभाव का तथा खीर का अभाव जिन में है उन पदार्थों - गोबर आदि के खीर से भेद का ज्ञान
__ १ सत् सत् इति । २ एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म इति । ३ न निरूपितं प्रमाणं यस्य साधनेतत् । ४ ब्रह्मवादिवचनस्य । ५ पदार्थाः। ६ पायसाभावाश्रयान् । ७ अत एव प्रत्यक्ष प्रमाणं विधात न निषेध इति न घटते ।