________________
१७०
विश्वतत्त्वप्रकाशः
[५०
स्पर्शज्ञानं श्रोत्रेनैव शब्दज्ञानं जायत इति लौकिकैः परीक्षकैश्च निश्चितत्वात् । ननु अद्वैताङ्गीकारेण गोमयमोदकयोर्भेदाभावात् सर्वस्याविद्यो - पादानकारणत्वेन भिन्न सामग्रीजन्यत्वाभावाच्च उभयविकलो दृष्टान्त' इति चेन्न । भिन्नाभिधानप्रत्ययव्यवहारप्रतिनियमात् गोमयमोदकादीनां भेदस्य प्रागेव प्रमाणैः समर्थितत्वात् । गोमयस्य तृणादिविकारत्वेन गोगर्भादुत्पत्तेः यवकणिक खलेन गुडमिश्रेण मोदकपिण्डस्योत्पत्तेः लौकिकैः परीक्षकैश्च निश्चितत्वाच्च । ननु रूपरसादिज्ञानानां करणवृत्तिरूपत्वेन' स्वसंवेद्यत्वाभावात् साधनविकलो दृष्टान्त इति चेन्न । रूपरसादिज्ञानं स्वसंवेद्यं चेतनत्वात् स्वरूपवदिति स्वसंवेदनत्वसिद्धेः । अथ रूपरसादिज्ञानस्य चेतनत्वमसिद्धमिति चेन्न । प्रतिफलितविषयाकार मनोवृत्त्युपहितचैतन्यं प्रमाणमिति रूपादिज्ञानस्य चेतनत्वसिद्धेः । तथा रूपादिज्ञानं
1
मोदक के समान ही परस्पर भिन्न हैं । ये सब ज्ञान अविद्या से ही उत्पन्न हैं तथा अद्वैत तत्व के अनुसार गोबर, मोदक आदि में कोई भेद नही है यह कथन भी उचित नहीं । अलग अलग शब्दों के प्रयोग से तथा प्रत्यय से पदार्थों में भेद का अस्तित्व पहले विस्तार से स्पष्ट किया
1
है । लौकिक दृष्टि से भी देखा जाय तो गाय के घास आदि खाने पर गोबर की उत्पत्ति होती है तथा जौं आदि गुड के साथ मिलाने पर मोदक बनता है - इस तरह इन का भेद स्पष्ट ही है । रूप, रस आदि का ज्ञान करणवृत्तिरूप ( साधनभूत) है अतः स्वसंवेद्य नहीं है यह आपत्ति भी ठीक नही । रूपज्ञान आदि चेतन हैं- जैसे कि वेदान्तियों ने भी माना है - प्रतिबिम्बित विषय के आकार की मनोवृत्ति से उपहित चैतन्य को प्रमाण कहते हैं; तथा जो चेतन है वह अवश्य ही स्वसंवेद्य होता है । रूपज्ञान आदि के बारे में संशय दूर करने के लिये किसी दूसरे की अपेक्षा नही होती इससे भी उनका चेतन तथा स्वसंवेद्य होना स्पष्ट होता है । स्वसंवेदन से रूपज्ञान, रसज्ञान आदि की भिन्नता स्पष्ट होती है । उसी प्रकार आत्माओं की भिन्नता भी स्पष्ट होती है ।
1
१ साध्यसाधन विकलो दृष्टान्तः परस्परं विभिन्नानि इति साध्यं विभिन्नसामग्रीजन्यत्वादिति साधनम् । २ ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानम् । इति करणवृत्तिरूपम् । ३ प्रतिफलितः विषयाकारः यस्यां मनोवृत्ता सा प्रतिफलित विषयाकारा मनोवृत्तिः तया ।