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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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सुखदुःखवदिति' च । तथा अयं शरीरी अन्यशरीरकृतसुखदुःखाश्रयो न भवति तत्साक्षात्काररहितत्वात् व्यतिरेके तच्छरीरिवदिति च । तथा विमतानि शरीराणि स्वसंख्यासंख्येयात्मवन्ति अस्मदादिप्रत्यक्षयोग्य जीवशरीरत्वात् संप्रतिपन्न शरीरवदिति । उक्तहेतुनां स्वरूपस्य प्रमाणसिद्धत्वान्न स्वरूपासिद्धत्वम् । पक्षे सद्भावान्न व्यधिकरणासिद्धत्वम् । पक्षे सर्वत्र प्रवर्तमानत्वात् न भागासिद्धत्वम् । पक्षस्य सर्वत्र प्रमाणप्रसिद्धत्वसमर्थनान्नाश्रयासिद्धत्वम् । पक्षे हेतोर्निश्चितत्वान्नाज्ञातासिद्धत्वं न संदिग्धासिद्धत्वं च । तत्तद्धेतोविंशेष्यविशेषणानां साफल्य समर्थनान्न विशेषणासिद्धत्वं न विशेष्यासिद्धत्वम् । पक्षे तेषां सद्भावान्न विशेष्यविशेषणासिद्धत्वम् । साध्यविपरीत निश्चिताविनाभावाभावान्न विरुद्धत्वम् । थासंभवं विपक्षाद् व्यावृत्तत्वान्नानैकान्तिकत्वम् । यथासंभवं सपक्षेय सत्त्वान्नानध्यवसितत्वम् । पक्षे साध्याभावावेदक प्रत्यक्षोभयवादिसंप्रति
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अनेक होना स्पष्ट
स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से आत्मा का भी प्रत्यक्ष ज्ञान होता है - इस ज्ञान से भी आत्मा के अनेक होने की पुष्टि होती है । वेदान्त मत में भी श्रवणमनन आदि के द्वारा आत्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान स्वीकार किया है । आत्मा ज्ञान का असमवायी आश्रय है इस से भी आत्मा का होता है। एक ही समय में सुख और दुःख के भिन्न अनुभव एक ही आत्मा पर आधारित नही हो सकते - इस से भी भिन्न-भिन्न आत्माओं का अस्तित्व स्पष्ट होता है । एक शरीरधारी जीव को दूसरे शरीर के सुखदुःख का अनुभव नही होता इस से भी दो शरीरों में दो आत्माओंका अस्तित्व स्पष्ट होता है । जितने शरीर हैं उतने ही जीव हैं क्यों कि प्रत्येक शरीर में अलग जीव का अस्तित्व हमें प्रत्यक्ष से ही ज्ञात होता है । इस प्रकार निर्दोष अनुमानों से आत्मा का अनेकत्व सिद्ध होता है। ( अनुमानों की निर्दोषता का विवरण मूल में देखना चाहिए । )
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१ ये विभिन्नाधिकरणे न भवतः ते एककालीनत्वेऽपि एकानुसंधानागोचरे न भवतः यथा एककालीन शरीरम् । २ शरीरसंख्याप्रमाणात्मानः यावन्ति शरीराणि ताकतः आत्मानः इत्यर्थः ।