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'मायावादविचारः
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आकाशवदिति चेत् तत्र प्रमाता पक्षीक्रियते अन्यो वा । न तावदाद्यः प्रमातुरेकत्वस्य स्वानुभवप्रत्यक्षवाधितत्वेन हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वात् । कुत इति चेत् एकानेकशरीरगतेन्द्रियजनितवर्तमान सुख दुःखप्रत्यक्षाभ्यां प्रमातृभेदस्य स्वानुभवप्रत्यक्षसिद्धत्वात् । किं च । प्रमातृन पक्षीकृत्य एकत्वं प्रसाध्यते चेन् मृगपशुपक्षिमनुष्यादीनां मातृपितृपुत्रपौत्रभ्रातृकलत्रादीनां विभागाभावेन एक एव सकललोकेषु संकायः स्यादिति अतिप्रसज्यते । अपसिद्धान्तापातश्च । कुतः । अन्तःकरणावच्छिन्नं चैतन्यं प्रमातृ इत्यन्तःकरणानामनन्तत्वेन प्रमातॄणामप्यनन्तत्वनिरूपणात् । द्वितीयपक्षे प्रमातुरन्यस्यात्मनः प्रमाणगोचरत्वाभावादाश्रयासिद्धो हेत्वाभासः स्यात् । वादिनो विशेष्यासिद्धश्च । वेदान्तपक्षे आत्मनो द्रव्यत्वाभावात् ।
अथ आत्मा एक एव विभुत्वात् आकाशवदिति चेन्न । हेतोरसिद्धत्वात् । कथम् । अहं ज्ञानी अहं सुखी अहमिच्छाद्वेषप्रयत्नवान् इत्याहमहमिकया स्वानुभवप्रत्यक्षेण शरीरमात्रे एव स्वात्मनः प्रतिभासमानत्वात् । ततो बाह्येऽप्रतिभासमानत्वाच्च । प्रागुक्तानेकत्वप्रसाधकानुमानानाम सर्वगतत्वप्रसाधकत्वाच्च ।
अनुमान भी उचित नहीं । यहां आत्मा एक है इस कथन में आत्मा का तात्पर्य प्रमाता हो यह संभव नही क्यों कि प्रत्येक शरीर के सुखदुःख का ज्ञाता जीव भिन्न है यह प्रत्यक्षसिद्ध है । सब प्रमाताओं को एक मानने से मृग, पशु, पक्षी, मनुष्य आदि का भेद तथा माता, पिता, भाई आदि का भेद लुप्त होगा ( जो अनुचित है ) । दूसरे, वेदान्त मत में अन्त:करण से अवच्छिन्न चैतन्य को प्रमाता माना है, अन्तःकरण अनन्त हैं अतः प्रमाता भी अनन्त हैं । इस लिये सब प्रमाताओं को एक कहना वेदान्त मत के ही विरुद्ध है । प्रमाता से भिन्न किसी आत्मा का अस्तित्व ही प्रमाणसिद्ध नही है अतः उसे एक सिद्ध करना व्यर्थ है । तीसरे, वेदान्तमत में आत्मा द्रव्य नही है अतः आत्मा स्पर्शरहित द्रव्य है यह उनका कथन भी स्वमतविरुद्ध है ।
आत्मा आकाश के समान व्यापक है अतः एक है यह अनुमान भी उचित नही । आत्मा व्यापक नही है क्यों कि मैं सुखी हूं, दुःखी हूं, ज्ञानी हूं आदि जितनी आत्मविषयक प्रतीति है वह सब अपने शरीर भीतर ही होती है - बाहर नही । अतः आत्मा अपने शरीर में