________________
१८० विश्वतत्वप्रकाशः
[५२ननु आत्मा एक एव अमूर्तत्वात् आकाशवदिति चेन्न । हेतोः क्रियाभिर्व्यभिचारात् । अथ तद्व्यवच्छेदार्थम् अमूर्तद्रव्यत्वादित्युच्यत इति
चेन्न । द्रव्यत्वस्य वाद्यसिद्धत्वेन हेतोर्विशेष्यासिद्धत्वात् । अथ आत्मा एक एव नित्यत्वात् आकाशवदिति चेन्न । अपरसामान्यैर्हेतोर्व्यभिचारात्। अथ तत् परिहारार्थ नित्यद्रव्यत्वादित्युच्यत इति चेन्न । परमाणुभिर्हेतो. र्व्यभिचारात् । अथ तद्व्यपोहार्थम् अनणुत्वे सति नित्यद्रव्यत्वादित्युच्यत इति चेन्न । तथापि दृष्टान्तस्य साधनविकलत्वात्। कुत इति चेत् 'आत्मन आकाशः संभूतः आकाशाद् वायुः वायोरग्निः' (तैत्तिरीय उ. २-१-१) इत्यादिना वेदेन आकाशस्योत्पन्ति विनाशकत्वेन कार्यद्रव्यत्वनिरूपणात् । तत्र एकत्वनित्यत्वनिरवयवत्वविभुत्वामूर्तत्वादेरसंभवात् । एतेन आत्माएक एव अनणुत्वे सत्यकारणकत्वात् अनणुत्वे सत्यकार्यत्वात् मर्यादित है – व्यापक नही। पहले आत्मा के अनेकत्व का समर्थन जिन अनुमानों से किया है उन्हीं से आत्मा के सर्वगत न होने का भी समर्थन होता है।
आत्मा अमूर्त है अतः आकाश के समान एक है यह कथन ठीक नही। क्रिया अमूर्त तो होती है किन्तु अनेक होती है। अतः अमूर्तत्व और एकत्व का नियत सम्बन्ध नही है। आत्मा अमूर्त द्रव्य है अतः एक है यह कथन भी ठीक नही क्यों कि वेदान्त मत में आत्मा को द्रव्य ही नही माना है। आत्मा नित्य है अतः एक है यह कथन भी अयोग्य है। ( घटत्व, पटत्व आदि ) अपर सामान्य नित्य तो होते हैं किन्तु अनेक होते हैं। अतः नित्यत्व और एकत्व में कोई नियत सम्बन्ध नही है। आत्मा को नित्य द्रव्य कहने से भी यह दोष दूर नही होता - परमाणु नित्य द्रव्य होने पर भी अनेक हैं। परमाणु का अपवाद मानकर भी यह अनुमान सदोष ही रहता है क्यों कि इस अनुमान का उदाहरण आकाश नित्य नही है। वेदवचन के ही अनुसार 'आत्मा से आकाश उत्पन्न हुआ, आकाश से वायु तथा वायु से अग्नि उत्पन्न हुआ हैं ।
१ क्रिया अमूर्तास्ति परंतु अनेका न । २ आत्मद्रव्यस्य वेदान्तिमते निर्गुणत्वम् । ३ अपरसामान्यानि नित्यानि सन्ति परंतु अनेकानि घटत्वपटत्वादीनि । ४ आकाशवत् इति । ५ अकारणकत्वात् इत्युक्ते अणौ व्यभिचारः कुतः अणौ।अकारणकत्वसद्भावेऽपि अणूनां बहूनां सद्भावात् अतः उक्त अनणुत्वे सति इति ।