________________
-५०] मायावादविचारः
१६९ जलवन्द्रादिवान आत्मैक्यप्रतिपादनं न योज्यते जलचन्द्रादीनाम: प्येकवाभावादिति स्थितम् । [५० आत्मबहुत्वसमर्थनम् ।]
तथा आत्मा अनेकः द्रव्यत्वव्यतिरिक्त सत्तावान्तरसामान्यवत्वात् पयोवत् । ननु आत्मनो द्रव्यत्वव्यतिरिक्तसत्तावान्तरस्गमान्यवरवमसिद्ध. मिति चेन्न । आत्मा द्रव्यत्वव्यतिरिक्तसत्तावान्तरसामान्यवान् स्वसंवेद्य. त्वात् रूपरमादिज्ञानवदिति आत्मनो द्रव्यत्वव्यतिरिक्तसत्तावान्तरसामान्यवत्त्वसिद्धेः। ननु रूपरसादिज्ञानानां द्रव्यत्वव्यतिरिक्तसत्तावान्तरसामान्यवस्वाभावात् साध्यविकलो दृष्टान्त इति चेन्न । रूपरसादिशानानि द्रव्यत्वव्यतिरिक्तसत्तावान्तरसामान्यवन्ति असर्वगतत्वे सति परस्पर विभिन्नत्वात् खण्डमुण्डसाबलेयादिवदिति रूपरसादिशानानां तत्सद्भावसिद्धेः । ननु रूपरसादिज्ञानानां परस्परं विभिन्नत्वाभावात् विशेष्यासिद्धो हेतुरिति चेत्र। रूपरसादिज्ञानानि परस्परं विभिन्नानि भिन्नसामग्रीजन्यत्वात् गोमयमोदकादिवदिति तेषां परस्परं विभिन्नत्वसद्भावात्। ननु रूपरसादिज्ञानानां विभिन्नसामग्रीजन्यत्वमप्यसिद्धमिति चेन्न । चक्षुषैव रूपशा रसनेनैव रसज्ञानं घ्राणेनैव गन्धज्ञानं स्पर्शनेनैव
rrrrrrrmmmmm...vmm
अन्यत्र प्रतीत नही होता किन्तु इस से वह असत्य सिद्ध नही होता । अतः प्रतिबिम्ब मत्य हैं। तदनुसार चन्द्र और प्रतिबिम्ब के उदाहरण से आत्मा में एकता का प्रतिपादन करना उचित नही है ।
५०. आत्म के अनेकत्वका समर्थन -अब आत्मा के अनेकत्व का प्रकारान्तर से समर्थन करते हैं । आत्मा में सत्ता तथा द्रव्यत्व इन के अतिरिक्त एक साम न्य ( आत्मत्व ) पाया जाता है - यह तभी संभव है जब आत्मा अनेक हों। आत्मत्व का अस्तित्व रूपज्ञान, रसज्ञान आदि के सनान स्वसंवेदन से सिद्ध होता है। रूपज्ञान, रसज्ञान आदि सर्वगत नहीं हैं, परस्पर विभिन्न हैं उसी प्रकार आत्मा भी परस्पर विभिन्न हैं। रूपज्ञान, रसज्ञान आदि भिन्न सामग्री से उत्पन्न होते हैं - रूप का ज्ञान चक्षु से होता है, रस का ज्ञान जिव्हा से होता है अतः ये गोबर और
Marww.ww.
१ द्रव्ये द्रव्यत्वमिति लक्षणं सामान्यम् एकं नित्यं वर्तते अत उक्तं द्रव्यत्वव्यतिरिक्तम् ।