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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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विचारकाः। जलमरीचिकासाधारणप्रदेशे जलज्ञानप्रामाण्यस्य रज्जुसदिसाधारणप्रदेशे सर्पादिज्ञानप्रामाण्यस्यापि संदेहाभावप्रसंगात् अस्त्वेवमिति चेन्न संदेहसद्भावात्। ननु प्रमाणान्तरेण संदेहापनये प्राक्तनज्ञानस्य प्रामाण्यं स्वत एव निश्चीयत इति चेन्न। प्रमाणान्तरप्रामाण्यस्याषि संदेहे अपरेण प्रमाणान्तरेण संदेहापनयस्तत्प्रमाणप्रामाण्येऽपि संदेहे अपरेण संदेहापनय इत्यनवस्थाप्रसंगात् । आकांक्षापरिक्षयाद यत्र क्वापि परिसमाप्तौ तच्चरमस्य प्रामाण्यं संदिशतस्तत्प्रामाण्यसंदेहे द्विचरमादारभ्य प्रथमपर्यन्तं संदेह इत्येवं प्रथमज्ञानप्रामाण्यसंदेहोऽपि तदवस्थ एव स्यात् । तथा च जलसर्पादौ प्रवृत्तिनिवृत्तिव्यवहारो दुर्घट एव स्यात् । ननु आद्यजलादिज्ञानप्रामाण्यसंदेहे तु अनुमानशानेन अर्थक्रियाज्ञानेन वा स्वतःसिद्धप्रामाण्येन संदेहापनये प्राक्तनशानस्य प्रामाण्यं स्वत एवावतिष्ठते ततो नानवस्थादिदोषप्रसङ्ग इति चेन्न । तत्ज्ञानोत्पत्तिसमये अनन्तरसमये वा स्वसंवेदनेन अर्थप्राकटयेन वा तत्ज्ञान स्वरूपनिश्चयेऽपि तदानीं तत्प्रामाण्यस्य ताभ्यां निश्चयाभावेन तस्य स्वतस्त्वासंभवात् । जब रेगिस्तान में जल का ज्ञान होता है तब यह जल है या मृगजल है ऐसे सन्देह के कारण उस ज्ञान के प्रामाण्य का निर्णय स्वतः नही होता। इसी प्रकार रस्सी के स्थान में सांप का ज्ञान होने पर उस ज्ञान के प्रामाण्य का निर्णय स्वतः नही होता। ऐसे स्थानों में सन्देह दूरकर प्रामाण्य का ज्ञान किसी दूसरे साधन द्वारा होता है। दूसरे साधन से सिर्फ सन्देह दूर होता है किन्तु पहले ज्ञान का प्रामाण्य तो स्वतः ही होता है यह कहना उचित नहीं। जब तक पदार्थ के स्पष्ट ज्ञान से या स्वसंवेदन से सन्देह दूर नही होता तब तक प्रामाण्य का ज्ञान कैसे हो सकता है ? अतः कुछ प्रसंगों में प्रामाण्य के सन्देह को दूर करने के लिये किसी दूसरे साधन की जरूरत होती है अर्थात प्रामाण्य का ज्ञान परतः होता है यह मानना चाहिये ।
१ मूलजलादिज्ञानस्य । २ जलमरीचिका सर्परज्जुः । ३ अनुमानज्ञानेन अर्थक्रियाज्ञानेन वा कथंभूतेन स्वतःसिद्धप्रामाण्येन । ४ आद्यजला दिज्ञानम् । ५ ज्ञानोत्पत्तिसमये अनन्तरसमये वा। ६ स्वसंवेदनेन अर्थप्राकटथेन ।