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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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घानेन अर्थप्रकाशत्वात् ईश्वरज्ञानवत् ज्ञप्तित्वात् प्रमाणत्वात् व्यतिरेके चक्षुरादिवत् । तथा ज्ञानं स्वसंवेद्यम् अस्मदादिप्रत्यक्षात्मगुणत्वात् व्यतिरेके संस्कारवत् । अथ सुखादिभिर्हेतोर्व्यभिचार इति चेन्न । तेषामपि तेनैव हेतुना स्वसंवेदनत्वसिद्धः। तथा हि सुखादिकं स्वसंवेद्यम् अस्मदादिप्रत्यक्षात्मगुणत्वात् व्यतिरेके संस्कारवदिति । ननु बुद्धयादीनां स्वसंवेद्यत्वेन प्रत्यक्षत्वाभावः किंतु अनुव्यवसायेनै वेति चेन्न। अनुव्यवसायस्यान्येन प्रत्यक्षत्वं तस्याप्यन्येनेत्यनवस्थाप्रसंगात् । अनुमानबाधितत्वाचं । तथा हि । आद्यं घटज्ञानं घटविषयज्ञानविषयं घटविषयत्वात् घटस्मरणवदिति नैयायिकवैशेषिकान् प्रति ज्ञानस्य स्वसंवेद्यत्वसिद्धिः।
ननु वीतं ज्ञानं न स्वसंवेद्यं करणत्वाच्चक्षुरादिवदिति चेन्न। अर्थप्राकट्येन हेतोर्व्यभिचारात् । तत्कथमिति चेत् करणशायविषयानुस्वयंप्रकाशी है - खुद को जान सकता है । नैयायिक ईश्वर के ज्ञान को स्वयंप्रकाशी मानते ही हैं उसी प्रकार सभी के ज्ञान को स्वसंवेद्य मानना चाहिए । ज्ञान ऐसा गण है जिसे हम प्रत्यक्ष से ही जानते है अतः वह स्वसंवेद्य है । आत्मा के सुख आदि गुण स्वसंवेद्य हैं उन्हीं में ज्ञान का भी अन्तर्भाव होता है । इस के विपरीत संस्कार आदि गुण स्वसंवेद्य नही हैं उन का प्रत्यक्ष से ज्ञान भी नही होता। बुद्धि से किसी ज्ञान का स्वसंवेदन नही होता - सिर्फ अनुव्यवसाय होता है - पूर्ववर्ती ज्ञान उत्तरवर्ती ज्ञान से जाना जाता है - यह कथन भी युक्त नहीं क्यों कि इस अनुव्यवसाय से ज्ञान के प्रत्यक्ष जाने जाने का स्पष्टीकरण नही होता। प्रत्युत पहला ज्ञान दूसरे द्वारा, दूसरा तीसरे द्वारा तथा तीसरा चौथे द्वारा जाना जाता है - यह अनवस्था दोष ही होता है। घट और घट का ज्ञान ये दोनों एक ही द्वारा जाने जाते हैं अतः ज्ञान का स्वसंवेद्य होना सिद्ध है।
१ यत् स्वयंप्रकाशकं न तत् ज्ञानं न यथा चक्षुरादिः। २ स्वयंवेद्यो न भवति स अस्मदादिप्रत्यक्षात्मगुणोऽपि न भवति यथा संस्कारः। ३ सुखादीनां अस्मदादिप्रत्यक्षात्मगुणत्वेऽपि स्वसंवेधत्वाभावादिति चैन्न । ४ सुखादिकं स्वसंवेद्यम् अस्मादादिप्रत्यक्षात्मगुणत्वात् । ५ उत्तरघटज्ञानेन पूर्वघटज्ञानस्या प्रत्यक्षत्वम् अनुव्यवसायः ।.६ यः घटज्ञाने न विषयः । ७ आह मते करणज्ञानं परोक्षं फलज्ञानं प्रत्यक्षम् ।