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१२० विश्वतत्त्वप्रकाशः
[४०[४०. योगाचारसंमता आत्मख्यातिः तन्निरासश्च । ]
ननु तदयुक्तमेवोक्तमाचार्यवर्येण बहिःप्रमेयस्यैवासंभवात्। कुत इति चेत् शानाकारस्यैव अनादिवासनावशाद बहिराकारोपेतत्वेन प्रतीयमानत्वात् । तथा च प्रयोगः। वीताः पृथिव्यादयः ज्ञानादव्यतिरिक्ता प्रतिभासमानत्वात् शुक्तिरजतवदिति । तत्र शुक्तौ रजतं विद्यते चेत् तद्देशोपसर्पणे तदर्थिभिस्तदुपलभ्येतैव न बाध्येत तत्र रजताभावेन प्रतिभासेत खरविषाणवत् । तथा च पुरोदेशे अभावेऽपि प्रतिभासमानं रजतं कुतस्त्यमिति विचारे ज्ञानाकारमेव अनादिवासनावशाद् बहिराकारोपेतं सत् पुरोदेशे प्रतीयत इति जाघटीति। शङ्ख चक्षुर्गते पित्तपीतिमारोपवत् , क्षीरे जिह्वागततिक्ततारोपवत् । तथैव प्रयोगः। वीतं रजतं संविदाकारम् इन्द्रियसंप्रयोगमन्तरेणापरोक्षत्वात् संवेदनस्वरूपवत् । तथा वीतं रजतं ज्ञानादण्यतिरिक्तं प्रतिभासमानत्वात् संवेदनस्वरूपवदिति योगाचाराः आत्मख्यातिं प्रत्यवातिष्ठिपन् ।
तेप्यऽतत्त्वज्ञाः तदुक्तस्य सर्वस्य विचारासहत्वात् । तथा हि। बहिराभावे सम्यग्ज्ञानमिथ्याज्ञानविभागो न स्यात्। संवादविसंवाद
४०. योगाचार मत का निरास-अब बह्य पदार्थों के अभाव के समर्थक योगाचार बौद्धों के मत का विचार करते हैं। इन के मतानुसार अनादि वासना के वश से ज्ञान के ही विभिन्न आकार बाह्य रूप धारण करते प्रतीत होते हैं। सीप को देख कर ' यह चांदी है। इस प्रकार ज्ञान का ही आकार प्रतीत होता है - क्यों कि समीप जाने पर चांदी प्राप्त नही होती। चांदी न होते हुए भी प्रतीत होती है इस का स्पष्टीकरण यही है कि यह वासना के वश से ज्ञान को प्राप्त हुए आकार से भिन्न नही है। जैसे आंख में शंख रोग होने पर बाहर के पदार्थ पीले दिखाई देते हैं अथवा जीभ कडवी होने पर दूध कडवा लगता है उसी प्रकार वासना के वश से बाह्य पदार्थ प्रतीत होते हैं - वास्तव में उन का अस्तित्व नही होता। जो भी प्रतीत होता है वह सब ज्ञान से अभिन्न है।
योगाचार दार्शनिकों का यह प्रतिपादन अयुक्त है। यदि बाह्य पदार्थों का अभाव माना जाय तो सम्यक ज्ञान और मिथ्या ज्ञान में कई
१ विज्ञानाद्वैतवादी। २ अभिन्नाः । ३ संविदः आकारो यस्मिन् ।