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-४१] भ्रान्तिविचारः
१३१ सद्भावात् । तथाहि विज्ञानानां तत्क्षेयानां च विवेकाग्रहमात्रं भ्रान्तिरित्युच्यते तद्यथेत्यादि कथनं खपुष्पसौरभव्यावर्णनमिव आभासते। किं च ।
सामानाधिकरण्यस्य' प्रवृत्तेर्बाधकस्य च ।
वैतथ्यस्याप्ययोगेन नाख्याति वृद्धसंमता ॥ तथा हि । रजतज्ञानस्य स्मरणत्वे इदं रजतमिति सामानाधिकरण्यं नोपपनीपद्यते । कुतः। नियतदेशकालवर्तीदमंशस्य देशकालानवच्छिनत्वेन' स्मर्यमाणरजतविशेषणानुपपत्तेः। अथ तयोर्भेदाग्रहणात् सामानाधिकरण्यं भविष्यतीति चेन्न । तयोर्देशकालाकारग्राहकज्ञानानां च भेददर्शनेन तद्भेदस्यापि गृहीतत्वात् । -अथ इदमंशरजतांशयोर्देशकाल. ग्राहकज्ञानभेदो न दृश्यत इति चेत् तर्हि एतद्देशकाले इदमंशग्राहकेणैव रजांशोऽपि गृह्यत इत्यङ्गोकर्तव्यम्। तथा चान्यथाख्यातिरेव' स्यात् उन में भेद होता तो उस का भी संवेदन पुरुष को अवश्य होता । अपने ही दो ज्ञानों में भेद की प्रतीति न होना सम्भव नही है। इन सब दोषों को देख कर कहा गया है - 'समान विभक्ति का प्रयोग, बाधक ज्ञान, प्रवृत्ति तथा भ्रन का व्यवहार इन सब का कोई स्पष्टीकरण अख्याति पक्ष ( भ्रन का अभाव मानने ) में सम्भव नही अतः यह पुरातन आचार्यों को मान्य नही है।' इसी का पुनः स्पष्टीकरण करते हैं। 'यह चांदी है ' यह ज्ञान वर्तमान समय तथा प्रदेश का है, चांदी के स्मरण में वर्तमान समय तथा प्रदेश की मर्यादा नही होती, अतः इन दोनों (यह कुछ तथा चांदी) का एक ही विभक्ति में प्रयोग सम्भव नही है। दोनों के भेद का ज्ञान न होने से एक विभक्ति में प्रयोग होता है यह कहना भी ठीक नहीं क्यों कि देश, काल तथा आकार का भेद अज्ञात नही रहता। देश, काल के ज्ञान में भेद नही होता इसी का तात्पर्य है कि यह कुछ ' तथा 'चांदी' ये दोनों ज्ञान एक ही वस्तु के विषय के हैं - यह अन्यथा ख्याति ही है (सीप को चांदी मानना
१ इदं शुक्तिशकलं रजतमिति सामानाधिकरण्यम्। २ इदं रजतं न तत्रैक। ३ सामानाधिकरण्येपि अख्यातिन, सर्वथाभावः अख्यातिः, शुक्तिशकले सर्वथा रजतनिषेधो न। ४ अनियतत्वेन । ५ इदमंशरजतांशस्मरणयोः। ६ इदमंशग्राहकं प्रत्यक्षं तेनैव रजतांशो गृह्यते न तु स्मरणेन। ७ शुक्तौ रजतं प्रतिभातं प्रत्यक्षेण परन्तु इदं ज्ञानं अयथार्थमेव ।